शनिवार, 27 अक्तूबर 2007

चारु चन्द्र की चंचल किरणें...

इस शरद पूर्णिमा पर हम भी अवसर को हाथ से जाने नहीँ देना चाहते थे*। सोचा कि मौका अच्छा है, चाँद की छवि को सहेज लिया जाय।

तो इस बार विचार आया कि चाँद के साथ शरद पूर्णिमा की चाँदनी के छायांकन का भी प्रयास किया जाय। रात्रि का समय और हम चले घर की छत पर। बिजली भी गुल। फ़कत माहताब की ही रोशनी हमारे मुहल्ले और शहर को आलोकित कर रही थी। फोटोग्राफी के लिये उपयुक्त अवसर! अलग अलग दिशाओं से दिखने वाली दृष्यावली को देखा तो कोई भी दृश्य ऐसा न दिखा कि जो विशेष रूप से आकर्षक हो और चाँद की दिशा में भी हो। खैर, हमें तो छायांकन करना ही था। कुछ देर उधेड़-बुन में चहल कदमी करते रहे। शरद पूर्णिमा पर चंद्र किरणॉं से होने वाली अमृत-वर्षा के बीच हमने कुछ समय फोटोग्राफी के प्रयोग किये और फिर कुछ संपादन। कुछ ऐसा दृश्य था इस चाँदनी रात में हमारे घर की छत से -


यह चित्र कुछ मायनों में पूर्णत: सत्य नहीँ है - मतलब यह नहीँ कि यह झूठा ही है। है तो यह सच्चा ही, पर कुछ तकनीकी जुगाड़ से। चाँद और दृष्यावली - इन दोनों में बहुत भिन्नताएं होती हैं। प्रकाश के स्तर में भी बहुत फर्क होता है, और लेंस को दिखायी देने वाले आकार में भी। इसलिये इस दोनों दृश्यों को अलग अलग छायांकित किया गया और फिर सम्पादन से इन्हें संयोजित किया गया। यह सही है कि दोनों चित्र लगभग समान परिस्थितियों में, अलग - अलग समय में, मिन्न सेटिंग्स पर लिये गये है। दोनों ही चित्र रात के हैं।

यह रहे इनके अलग अलग चित्र -
अ) छत से केवल चाँदनी के प्रकाश में खीँचा गया छाया चित्र
sharad-poornima-2007-roof-night-shot-01
ब) चन्द्रमा का छाया चित्र
sharad-poornima-2007-moon-01
सम्पादन में बहुत अधिक फेरबदल तो नहीँ, कुछ आकार व प्रकाश स्तर का संयोजन और कुछ नील वर्ण का प्रभाव - बस इतना ही किया गया है संयुक्त चित्र को बनाने में।

तकनीकी जानकारी
तकनीकी जानकारी भी लिख देना ठीक होगा, ताकि सन्दर्भे के लिये उपयुक्त रहे।
अ) दृष्यावली -
ISO = 100, F = 8.0, Exposure = 137 Seconds, Focal Length = 55mm
अधिक देर का एक्सपोज़र देना आवश्यक था, जिससे कि मात्र चाँदनी के प्रकाश से ही पर्याप्त रूप से दृश्यावली आलोकित हो जाय। और इसलिये त्रिपदी (tripod) का प्रयोग भी किया गया। दृष्य का विस्तार अधिक हो, इसलिये बहुत अधिक फोकल लेंग्थ का प्रयोग नहीँ किया जा सकता था।
ब) चन्द्रमा -
ISO = 100, F = 16.0, Exposure = 1/125 Seconds, Focal Length = 263 mm
अधिक कंट्रास्ट व स्पष्टता के लिये कम एपरचर का प्रयोग किया गया। चंद्रमा के सापेक्ष आकार को प्राथमिकता देने के लिये, अधिक फोकल लेंग्थ का प्रयोग किया गया और इसी कारण से इस चित्र में भी त्रिपदी अत्यावश्यक थी पर खराबी आ जाने से उसका प्रयोग नहीँ हो सका और यह चित्र बिना त्रिपदी के ही लिया गया।

* एक बार पहले भी हमने चन्द्र देव के छायांकन का प्रयास किया है, वह भी एक और विशेष अवसर पर - विगत मई 2007 में Blue Moon के अवसर पर। किसी एक ही माह में दो बार पूर्णिमा पड़ने पर उसे अंग्रेज़ी में ब्लू मून कहते हैं और ऐसे अवसर बिरले ही होते हैं जिसके कारण Once In a Blue Moon कहावत भी चल पड़ी।
Once in a Blue Moon, 31 May 2007 Kanpur, India DPP_0276

सोमवार, 17 सितंबर 2007

जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला (उड़नतश्तरी व फुरसतिया को चुनौती)

बहुत दिनों से चिट्ठा और टिप्पणी पर पढ़ ही रहा था, यूँ कहें कि विगत दो अथवा अधिक वर्षों से इस विषय पर अलग अलग विद्वान चिट्ठाकारों ने अपनी राय दी और हम इन्हें पढ़ते रहे, चुपचाप इन विचारों को आत्मसात करते रहे।

एक बार पुन: शास्त्री जी के लेख और उन पर होने वाली टिप्पणियों और प्रति-लेख को पढ़ने पर कुछ-कछ ब्राउनियन-गति जैसा अनुभव हुआ (कणों की पारस्परिक गति, जिसमें वे एक दूसरे से टकराकर ऊर्जा, गति व दिशा में बदलाव करते हैं) कुछ टिप्पणी, कुछ चिट्ठे, कुछ उन पर भी टिप्पणी। सरसरी तौर पर पढने से तो जो ऊर्जा मिली उसको तो अवशोषित कर लिया और शांत बैठे रहे, पर पुन: पढ़ने पर लिखने भर की ऊर्जा मिल ही गयी।

संदर्भ के लिये हालिया चिट्ठों की कुछ सिलसिलेवार कड़ियाँ:

शताब्दियों पहले जेम्स वॉट ने कभी भाप की शक्ति को जाना, प्रयोग किया फिर कई और अन्वेषण हुए, बहुत शोध होते रहे, यांत्रिक अभियांत्रिकी का विकास हुआ और समाज के ज्ञान का स्तर बढ़ता रहा। प्रयोग और अनुसंधान जारी हैं और रहेंगे।

ठीक वैसे ही चिट्ठाकारी से संबंधित ट्प्पिणियों पर, टिप्पणियों की अपेक्षा पर, टिप्पणियों के महत्व पर, पारस्परिक टिप्पणियों के आदान प्रदान पर, टिप्पणियों के मापदण्ड पर, लोकप्रियता बढ़ाने पर, हिट काउंटर्स आदि विषयों पर धीरे धीरे चिट्ठाजगत में परिमार्जित / परिवर्धित विचार प्रस्तुत होते रहे। चिट्ठाजगत में भी टिप्पणियों पर शोध जारी है। नये शोध से नये सिद्धांत भी प्रतिपादित होते रहे हैं।

ख़ैर, हमारे पास तो कोई विश्लेषण नहीँ है, पर अपने विचार ही लिखता हूँ -

1 - चिट्ठा लिखने के उद्देश्य
भिन्न लेखकों के भिन्न उद्देश्य हो सकते हैं। अधिकतर चिट्ठाकार संभवत: स्वांत: सुखाय लिखते हों, कभी किसी ने कहा कि ऐसा नहीँ होता, यदि ऐसा ही हो तो वे डायरी लिखना पसंद करें। कुछ प्रतिक्रिया स्वरूप लिखते हैं। हम तो "ऐसे ही" लिखते हैं (अव्वल तो लिखते ही नहीँ) यदि लेखक मात्र इस उद्देश्य से लिखें कि चिट्ठा तो केवल उसका विचार/ लेख संकलन है तब न तो कोई अपेक्षा होगी न क्लांति। बस, हम चिट्ठे को अपनी डायरी ही मान लें, इस सुविधाके साथ कि उसके संपादन के लिये यह मात्र एक तंत्राश है, कोई कभी पढ़ भी ले तो कोई उज्र नहीँ।

सुनील दीपक जी के चिट्ठे पर अधिकांशत: सहजता और सरलता की छाप दिखती है - बस एक सहज विचार संकलन जैसा, पूर्णत: स्वाभाविक रूप में!

यदि यह माना जाय कि लेख जनता के ज्ञानवर्धन के लिये है, मनोरंजन के लिये है तब कुछ कुछ अपेक्षा भी होना स्वाभाविक है पर चिट्ठे के इस श्रेणी तक पहँचते-पहँचते चिट्ठाकार वैसे ही लोकप्रिय हो चुका होता है और टिप्प्णी की कमी उसे नहीँ रहती, न ही उसका लेखन टिप्प्णियों की संख्या से प्रभावित होता होगा, ऐसा मेरा अनुमान है (अब हम इसमें अधिक कैसे जान सकते हैं, हम तो उस स्तर के हैं नहीँ) रवि जी इसमें अग्रगण्य हैं। वैसे उन्मुक्त जी का चिट्ठा भी इसी प्रकार का है और उड़नतश्तरीफुरसतिया के लिये तो बिना टिप्प्णी का लेख लिखना एक चुनौती ही है! हिम्मत हो तो स्वीकारें इसे ;)

2 - टिप्प्णी की अपेक्षा

दरअसल यह अपेक्षा ही मूल है, निराशा का भी (यदि अपेक्षा पूरी न हुयी) और प्रोत्साहन का भी / लोभ का भी (यदि अपेक्षा पूरी हो गयी तब भी)। यह बहुत कुछ लेखन के उद्देश्य से जुड़ा है। यह माना जाय कि यदि कोई लेख स्तरीय हुआ तो टिप्प्णी मिल ही जायेंगी, अन्यथा नहीँ। हम तो अपने विचार वैसे भी लिख ही रहे थे, कि कभी भविष्य में हम ही उनका अवलोकन कर लेंगे। मैं अन्य की तो नहीँ कहता पर अपनी तो कोई अपेक्षा है नहीँ - "जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला"

3 - कब और क्या टिप्पणी दें
मेरे विचार से टिप्पणी देनी तभी चाहिये जब कभी वास्तव में हम लेख की आलोचना अथवा प्रशंसा करना चाहते हों, इसमें उदारता / कृपणता का स्तर भिन्न हो सकता है - अथवा यदि हम लेख से संबन्धित कुछ जोड़ सकते हैं अथवा कुछ सुधार जैसे सुझाव दे सकें, सम्बन्धित लेखों की कड़िया दे सकें तभी टिप्पणी दें। कभी कभी प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ विचार स्वाभाविक रूप से आ जाते हैं, उन्हें रोकने की आवश्यकता नहीं, टिप्पणी द्वारा तुरंत अपने विचार व्यक्त किये जायें। हम तो इसमें भी बहुत आलसी हैं, मन तो बहुत होता है, कई बार टिप्प्णी लिखते-लिखते थक जाते हैं (यदि टिप्प्णी को भी ड्राफ्ट की तरह सहेजने की व्यवस्था हो तो फिर टिप्पणी भी किश्तों में करें हम तो)

4 - नवोदित चिट्ठाकारों का प्रोत्साहन
यह कारण तो तर्कसंगत जान पड़ता है। चिट्ठाकार के पहले 2-4 चिट्ठों पर तो यह ठीक है, इस प्रकार वह यह तो समझ ही लेगा कि उसका चिठ्ठा पाठकों की दृष्टि में तो है। कभी कभी इस उद्देश्य से तो टिप्पणी की जा सकती है पर मात्र "रसीद" के रूप में ठीक नहीं। जैसा कि टिप्प्णीकार ने अपने शीर्षक में लिखा "वाह वाह” या “लिखते रहें” से बेहतर है चुप्‍पी", मैं तो उसे ठीक समझता हूँ। यदि नवोदित चिट्ठाकार भी यह समझ लें कि चिट्ठे का उद्देश्य मात्र टिप्प्णी व लोकप्रियता नहीँ, वरन विचारों का संकलन है तो लेखन सहज व स्वाभाविक रहेगा।

5 - पाठकों का आवागमन
संजय जी द्वारा उठाया गया यह प्रश्न वास्तव में ठीक है। कुछ स्तर तक तो एनालिटिकस (Google Analytics) व अन्य औजार बता सकते हैं, पर पाठक की पहिचान नहीँ। यदि पाठक मात्र यह बताना भी चाहें कि उन्होंने लेख/कविता पर दृष्टिपात कर लिया है, अथवा गंभीरता पूर्वक पढ़ भी लिया है तो टिप्प्णी देना एक सरल उपाय है। पर टिप्प्णी को मात्र इसीलिये प्रयोग किया जाय? मैं स्वयं अनिश्चित हूँ। हाँ, यदि चिट्ठाकार / टिप्प्णीकार यह मान ले कि कोई फर्क नहीँ पड़ता चाहे कोई पढ़े अथवा नहीँ, तो इस समस्या से भी निजात। वैसे रवि जी ने एक सरल उपाय भी बताया था किलकाती टिप्पणियाँ शीर्षक से।

6 - हिन्दी व अंग्रेज़ी चिट्ठों की तुलना
मेरे विचार से यह एक गंभीर मसला है। क्यों हम इतनी आशा करते हैं मात्र टिप्पणियों की? क्यों जुगत लगाते हैं? क्यों नहीँ स्वाभाविक रूप से लेखन, पाठन व टिप्पणियाँ होने देते? क्यों इनको आपसी सम्बन्धों का मापक मान लेते हैं? हिन्दी चिठ्ठाकारी में शायद यह परम्परा व हमारी सामाजिक संस्कृति से आ गया है।

यदि अंग्रेजी चिट्ठाजगत को देखें तो अनेकानेक चिठ्ठे व अनेकानेक लेख महीनों टिप्प्णीशून्य रहते हैं। यह बात नहीँ कि वे सभी स्तरहीन हैं। मैंने अनेकों बार तकनीकी व अन्य विषयों सम्बन्धी ऐसे चिट्ठे देखे हैं जो कि सारगर्भित होते हुए भी टिप्प्णीशून्य थे। ऐसा मानना ग़लत होगा कि वे कभी पढ़े ही नहीं गये, पर अधिकांशत: औपचारिकता के लिये टिप्पणी की गयी हो ऐसा अपेक्षाकृत कम पाया है मैंने - विशेषकर नियमित चिट्ठाकारों में। हिन्दी चिट्ठाजगत में है यह धारणा।

कदाचित् अंग्रेज़ी चिट्ठाजगत के विस्तार, वैविध्य के कारण ऐसा हो। हाँ, पर उनमें भी सन्दर्भ होने पर पारस्परिक कड़ियाँ अधिकांशत: पायी जाती हैं। कई चिट्ठों में बहुत-बहुत समयांतराल बाद भी, पर नियमित रूप से टिप्प्णियाँ बरसती हैं - यह भी हिन्दी चिट्ठाजगत में होता तो है पर कम ही, मेरे अनुमानित विश्लेषण से रवि जी के चिट्ठे पर ऐसा पाया जाना स्वाभाविक है। क्या कारण हैं इसके? यदि विषयों से बंधा हुआ, सारगर्भित लेखन होगा तो टिप्पणी हो न हो, पाठक पहुँचेंगे अवश्य ही - आज नहीं तो भविष्य में। ऐसे आश्वस्त रह कर मात्र गुणवत्ता की ओर ध्यान दिया जाय। मात्र औपचारिक टिप्प्णियों को कुछ कम करें तो शायद विविधता और गुणवत्ता में और भी सुधार हो।

7 - समीर जी की टिप्प्णियाँ
समीर जी की टिप्प्णियाँ अपवाद हैं। ये वास्तव में विशेष स्थान रखती हैं वह तकनीकी कारणों से भी। चूंकि वे टिप्प्णी के मामले में दानवीर कर्ण, राजा हर्षवर्धन से भी आगे है, बिन माँगे ही सब कुछ दे देते है इसलिये अब तो उनसे टिप्प्णी की अपेक्षा अवश्य ही करनी चाहिये और अब तो समीर जी यह अघोषित दायित्व हो ही गया है ;) यदि समीर जी की टिप्प्णी न मिले तो हम तो समझते हैं कि कोई तकनीकी लोचा है, शायद यह पोस्ट कनाडा में दिख नहीँ रही, अन्यथा उनकी टिप्पणी आती अवश्य, सो पुन: चिट्ठे की तकनीकी जाँच आवश्यक हो जाती है!

8 - टिप्प्णीशून्य लेख / चिट्ठा
मसिजीवी का कभी कभी अनहिट, निर्लिंक व टिप्‍पणीशून्‍य भी लिखें- अपने लिए
मुझे अच्छा लगा। बहुत आनंद रहता है अपने लिये लिखने में, और जो टिप्प्णीशून्य भी हो। अजी, टिप्प्णीशून्य लेख का आनन्द तो बहुत उच्च कोटि का है। मैंने भी लिखा है कुछ टिप्पणीशून्य - बिलकुल ऐसा लगता है कि आपने एक विशाल धनराशि (लेखक के दृष्टिकोण से) को बिना ताले, खुले में छुपा रखा है और कोई उसकी तरफ देख भी नहीँ रहा! अब फ़ुरसतिया, जीतू, रवि जी, व समीर जी तो ऐसा आनन्द पाने से रहे। तो आप इसी से प्रसन्न रहिये कि जो नामचीन चिट्ठाकार नहीं पा सके (और अब पा भी नहीँ सकते, जब तक वे छ्द्म नाम से नहीँ लिखते) वे आप अनायास ही पा जाते हैं, और पाते रह्ते हैं जब तक भूले-भटके ग़लती से कोई टिप्प्णी नहीं कर देता। वाह! क्या बात है!

एक बात और भी, एक चलचित्र (दिल चाहता है) का यह संवाद लेख के टिप्प्णीशून्य रहने पर ही पर लेख की श्रेष्ठता को सिद्ध करता है -

परफेक्शन में इंप्रूवमेंट का स्कोप नहीँ रहता

8 - अन्य चिट्ठाकारों के लेख

कुछ अन्य पठनीय लेख जो पूर्व में अन्य चिट्ठाकारों द्वारा टिप्पणी, लोकप्रियता, पारस्परिक टिप्पणी आदि विषयों पर लिखे गये हैं, इनमें व्यंग्यात्मक व गंभीर दोनों ही हो सकते हैं (यदि कुछ रह गये हों तो संज्ञान में आने पर जोड़ दिये जायेंगे)

टिप्पणी-निपटान की जल्दी
चिठ्ठे का टी आर पी
रेडीमेड टिप्पणियाँ
हिंदी में चिट्ठाकारी के कारण पर विचार
पीठ खुजाना: पारस्परिक टिप्पणी
टिप्पणियों के जुगाड़

इसके अतिरिक्त भी बहुत लोगों ने - समीर लाल जी, जीतू जी, रवि जी, फुरसतिया जी, आलोक जी, ज्ञान जी आदि ने भी इन विषयों पर तथा नुस्खे आदि पर एकाधिक बार लिखा है - जिन खोज तिन पाईयाँ, हमने तो पढ़ा था, पर खोज नहीँ पाय।

अब और लिखा नहीँ जाता, दिमाग का क्या है, भागता ही रहता है।


अस्वीकरण
पुन: यह स्माइली ;) चुनौती के लिये - यह मात्र लेखन के लिये है कोई दंगल की चुनौती नहीँ

मंगलवार, 17 जुलाई 2007

रैगिंग - क्यों और कैसे


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
मसिजीवी जी ने अपने चिट्ठे हार्मलेस फ़न पर कुछ ऐसा ज़िक्र किया कि टिप्पणी के साथ-साथ तुरंत ही कुछ और भी लिखने की ऊर्जा मिली और शायद फुरसतिया द्वारा उल्लिखित चार यार वाले आलेख में मेरे स्वयं के बारे में न्यूटन के जड़त्व के सिद्धांत के अनुपालन करने के आरोप से मुक्ति का अवसर भी। (वास्तव में तो फुरसतिया जी ने सही ही कहा है, और विज्ञान के सिद्धांत पर भी परखें तो मसिजीवी के आलेख द्वारा प्रदत्त यह बाह्य ऊर्जा ही है|)

रैगिंग प्रक्रिया, या अब हो चला संस्कार, जिस के अंतर्गत सद्य:वरिष्ठ (Neo seniors) छात्रों द्वारा नवागंतुक विद्यार्थियों से परिचय प्राप्त करना - नहीँ बल्कि उसके रूप में उन्हें प्रताड़ित करना, मानसिक व शारीरिक रूप से कष्ट देना और उस पर तुर्रा यह कि यह तो एक आवश्यक परंपरा है, जिसके निर्वहन से आत्मीयता और स्नेह बढ़ता है, महाविद्यालयों व अन्य शिक्षा संस्थानों के छात्रों की जीर्ण मानसिकता और शिक्षण-संस्थानों के समाज की मानसिक निर्धनता का ही द्योतक है।

यह सही है, और आवश्यक भी है कि वरिष्ट छात्रों व नवागंतुक छात्रों के बीच स्नेह, आदर और मित्रता का संबंध हो और यह भी ठीक ही है कि वरिष्ठ छात्र यह अपेक्षा करें कि कनिष्ठ छात्र उन्हें सम्मानयुक्त मित्रता की दृष्टि से देखें। मैं यह भी मानता हूँ कि इस के लिये रैगिंग (शाब्दिक अर्थ में नहीं) तो अपरिहार्य है, पर इस रूप में नहीं जैसे कि आम तौर पर पाया जाता है। यदि रैगिंग को स्वस्थ, मनोरंजक, मज़ाकिया व चुटकी के रूप में अपनाया जाय तो संभवत: यह संस्कार एक बेहतर आनंददायी व अपने वास्तविक प्रयोजन में अधिक सफ़ल हो। इसमें सीमित मात्रा में मज़ाक, कुछ हद तक मौज, कुछ सूचनात्मकता, कुछ सामान्य व विशिष्ट ज्ञान आदि सही-सही अनुपात में समाहित किये जाएं तो यह प्रक्रिया रचनात्मक भी हो सकती है। यह विशेष ध्यान रहे कि मज़ाक अथवा मानसिक चुटकियों की मात्रा व सीमा का उल्लंघन कदापि न हो और उचित समय पर इसे सुखद माहौल में ही समाप्त किया जाय।

यह कुछ वैसा ही है कि जैसे मैंने कभी सुगन्धि विज्ञान में पढ़ा, व परखा भी था कि कई पदार्थ ऐसे होते हैं कि जो सामान्य मात्रा में अत्यंत दुर्गन्ध युक्त होते हैं, इन्हें एक पल सूँघते ही शायद मितली हो जाय परंतु उन्हीं की अति-सूक्ष्म मात्रा विशिष्ट सुगंध वाली होती है व ये अनेक प्रकार के सुगंधियों के उत्पादन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

ऐसे मज़ाक, मनोरंजन, उपहास, चुटकी आदि की सीमा क्या हो, यह शायद वरिष्ट विद्यार्थी स्वयं अपने अनुभव व संयत सोच से तय कर सकते हैं।

अपने बारे में मैं बता सकता हूँ, कि रैगिंग का शिकार तो मैं भी बना था, परंतु स्वयं वरिष्ठ (Senior) होने पर कभी किसी भी प्रकार से उत्पीड़न वाली रैगिंग करने का मन ही नहीं हुआ, अक्सर तो अन्य सहपाठियों द्वारा करायी जा रही रैगिंग में शामिल हो कर और उसे शीघ्रता और सौहार्द्रपूर्ण रूप से समाप्त करने में अधिक आनंद आता था, कभी-कभी सहपाठियों ने विरोध भी किया तो मान-मनौव्वल और अन्य युक्तियों से, जैसे कि उनसे यह कह कर कि अब इस नवागंतुक-विद्यार्थी को मेरे पास आने दो, ऐसा कह कर ले गया और शीघ्र ही उसे मुक्त कर दिया।

एकाध बार अपने इस प्रयास में विफल भी रहा हूँ। एक मनोरंजक वाकया यह भी हुआ। स्कूल के दिनों में हमारी कक्षा का मॉनीटर हुआ करता था - आनंद । एकाध बार उसकी शिकायत पर मुझे सजा भी मिली । वह मुझसे शारीरिक रूप से बलशाली हुआ करता था। बाद में उच्च संस्थान में उसका प्रवेश एक वर्ष उपरांत हुआ। प्रारंभिक दिनों में उसने एक दिन संस्थान में मेरा दोस्ताना नाम ले कर दूर से आवाज़ दी। यही अपराध हो गया उससे! फ़िर क्या था - मेरे साथ कुछ सहपाठी भी थे, मेरे लाख समझाने पर भी वे उसे अपने साथ छात्रावास ले गये, मुझे अलग जाना ही था। अगले दिन मुझे पता चला कि ठीक-ठाक उड़ैया हो गयी जनाब की और उसे खूब शिष्टाचार सिखाया गया।

मेरा वह मित्र वर्षों तक मुझे इस बात का उलाहना देता रहा और मज़ाक युक्त आरोप लगाता रहा कि मैंने ही उस दिन उसकी धुनाई करवा दी थी।

इसके विपरीत, अनेक बार रैगिंग के बाद होने वाले मित्रवत, और अनुजवत् स्नेह का पात्र भी रहा हूँ मैं। यह माना जाता है कि वरिष्ठ-कनिष्ठ सम्बन्धों की नींव ही रैगिंग से पड़ती है और बाद में ये सम्बन्ध अग्रज-अनुज के रूप में लम्बे अरसे तक कायम रहते हैं। मुंबई मे हंम दो सहपाठियों के प्रवास के दौरान अपने संस्थान के पूर्व-वरिष्ठ छात्रों द्वारा दिया गया अतुलनीय सहयोग और अपने घर से हज़ार मील दूर, हमारे सहपाठी के सर्प-दंश की शंका मात्र पर उन वरिष्ट छात्रों द्वारा त्वरित उपचार व पूर्ण सहयोग का भी गवाह रहा हूँ मैं।

बहुत दूर नहीं, पिछले सप्ताह ही, मैंने अपने ही संस्थान के एक वरिष्ठ छात्र, जो बाद में मेरे गुरु व अब एक महत्वपूर्ण सरकारी संस्थान के निदेशक हैं, उनसे बिना पूर्व सहमति के तब मुलाकात की है जब कि वे दिन भर की यात्रा कर के देर रात्रि अपने घर पहुंचे थे, मात्र 2-3 मिनट पहले ही, और इस पर भी उन्होंने मुझे स्नेहपूर्वक बिठाया और भविष्य में भी कभी भी बेहिचक किसी भी समय मिलने का आश्वासन भी दिया। अपने प्रारंभिक कार्यकाल में मैंने स्वंय भी अग्रज के रूप में, एक से अधिक बार अपने होस्टेल के कमरे में कई सप्ताह तक अपने कनिष्ठ छात्रों को स्वयं बुलाकर ठहराया है और आनंद का अनुभव किया है।

तो यह तो नहीँ कह सकता कि रैगिंग नाम से जानी जाने वाली परंपरा कतई ख़राब है - पर हाँ उसका निर्वहन का रूप और सीमा दोनों मर्यादित हों।

रैगिंग का विक़ृत होता स्वरूप और बदले की भावना वास्तव में गंभीर है, मात्र अनुशासनात्मक कार्यवाही और कानून के भय से इस परंपरा को बदला नहीं जा सकता। शायद सद्य: वरिष्ठ छात्रों को यह समझाकर कि यदि इस परंपरा को वे सुधारने में व उत्पीड़न को समाप्त करने में सहायक हों, व स्वस्थ और हल्के-फुलके रूप से (फुरसतिया ब्रांड) मौज / चुटकी ले कर परिचय व साक्षात्कार की रस्म पूरी करें तो सभी के लिये भला होगा और नवागंतुक (अनुज) उन्हें अधिक सम्मान मिश्रित स्नेह देंगे तो कदाचित उत्पीड़न के रिवाज़ कुछ कम हों। हमारे मनोचिकित्सक भी सत्रारंभ के पहले यदि अपने लेख व सामूहिक गोष्ठी व ऐसे प्रयासों से वरिष्ठ छात्रों व संस्थान प्रबंधन से मिलकर, उन्हें सलाह दे कर कदाचित इस प्रकिया के हानिरहित व धनात्मक पहलुओं को सामने लाने में अपना सहयोग दे सकते हैं।

सोमवार, 14 मई 2007

विवाहोत्सव एवं / अथवा चिट्ठाकार भेंट

सन्दर्भ
पिछली पोस्ट में इस बात का उल्लेख किया था कि जब मुझे फुरसतिया जी ने निमंत्रित किया तो मुझे याद ही न रहा कि मेरी साली का भी विवाह उसी दिन है, फिर उस पर अनूप जी की प्रतिक्रिया। वैसे यह पूरी पोस्ट एक ही होती - सन्दर्भ एक ही था पर विषय-वस्तु कुछ भिन्न होने से इन्हें अलग पोस्ट का रूप देना उचित लगा। पहली घटना को पहले स्थान मिला और शेष यहाँ पर है।

गत 8 मई को हम फुरसतिया जी की भतीजी के विवाह के उत्सव में सम्मिलित होने गये, वहाँ भेंट हुई अनूप जी के मित्रों, परिजनों व चिट्ठाकार मसिजीवी से।

अनूप जी ने तो अपनी बहु-विवरणीय पोस्ट में बहुत कुछ लिख दिया। कुछ-कुछ विवाह सम्बन्धित विवरण, मसीजीवी से भेंट का विस्तृत विवरण, कुछ चिट्ठा जगत में हुई घटनाओं की नब्ज़ भी देखी और अंत में यह कह दिया कि अब हमारे जिम्मे है अपने दृष्टिकोण से ब्लॉगर-भेंट का विवरण प्रस्तुत करना।

गेंद फिर हमारे पाले में आ गयी! वह भी एक दुविधा के साथ!

अब इसे क्या कहें, यह कहें कि हम अनूप जी के यहाँ समारोह में गये थे या कि ब्लॉगर भेंट के लिये! ब्लॉगर भेंट में तो ब्लॉगर ही जाते हैं। अव्वल तो अभी भी हम अपने आप को ब्लॉगरों में नहीँ शुमार करते। या यूँ कहें कि ब्लॉगर के रूप में अभी हम प्रशिक्षु ही हैं, कोई मुस्तकिल दर्जा नहीँ पाये हैं ब्लॉगर का अभी तक या फिर यह कि अपने आप को मुक्त मानते हैं इस संज्ञा से।

तो यदि यह कह दें कि हम तो विवाह में सम्मिलित होने गये थे, तो कहा जायेगा कि फिर ब्लॉगर भेंट के लिये क्योँ नहीं आये ? अरे, देश की राजधानी से चिट्ठाकार (मसिजीवी) आपके नगर में आये और आप हैं कि इसे अपने संज्ञान में ही नहीँ लाते, कोई उत्तरदायित्व नहीं समझते। और तो और अपनी आतिथ्य परम्परा को भी भूल गये। अतिथि के रूप में अपने नगर में आये चिट्ठाकार से भेंट का प्रयोजन नहीँ था क्या?

इसके विपरीत यदि हम यह कहें कि हम तो चिट्ठाकार-भेंट के लिये आये थे, तब तोहमत यह कि आप तो विवाह में आमंत्रित थे, तो इसमें क्यों नहीं सम्मिलित हुए?

ऐसी स्थिति में क्या कहें हम? बड़ी दुविधा है।

खैर, मसिजीवी के आगमन के बाद दोपहर में अनूप जी का फोन आया कि जनाब मसिजीवी आ गये हैं और वे तथा मसिजीवी दोनों ही भेंट के इच्छुक हैं। हमें तो अपनी उपस्थिति ससुराल में भी दर्ज़ करानी थी, पर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि उस दिन दोपहर तक हम अंतर्जाल से लड़ते रहे और एक आकस्मिक समस्या के निदान में बहुत समय व्यतीत करना पड़ा। दोपहर बाद हमने अपने को मुक्त किया और साली के विवाह-स्थल पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी। कुछ देर बाद सायंकाल उत्सव से कुछ समय पूर्व ही हम पहुंचे अनूप जी के यहाँ।

पहले अनूप जी से भेंट हुई और पता चला कि मसिजीवी आ तो गये हैं पर विश्राम-गृह में विश्राम कर रहे हैं। कुछ देर तक अनूप जी से बातें हुयीं (ग़ैर चिट्ठाकारी की) और फिर उन्होंने मिलवाया अपने मित्र विनय अवस्थी जी से। ये भी एक रोचक भेंट थी, ज़रा ध्यान दें, विनय जी अनूप जी के सहपाठी रहे हैं, अनूप जी ने बताया कि ये वही विनय अवस्थी हैं जिनका ज़िक्र जिज्ञासु यायावर के वृत्तांतों में कई स्थानों पर हुआ है, वे अनूप जी के साथ भारत की साईकिल यात्रा में भी सहभागी रहे थे।

विनय जी से बात करने पर मालूम हुआ कि वे उत्तरकाशी में नियुक्त हैं, उस क्षेत्र की बात होते ही मेरी उत्सुकता स्वाभाविक थी| कारण यह कि गढ़वाल मंडल और विशेषकर वह क्षेत्र और उत्तरकाशी, गंगोत्री से लेकर गंगनानी, हर्सिल, बगोरी, दयारा बुग्याल, और उपर गंगा के उद्गम गोमुख ग्लेशियर तथा नंदनवन आदि मुझे अति आकर्षक लगते हैं और इन क्षेत्रों की यात्रायें भी मैंने एकाधिक बार की हैं, कुछ परिचित भी हूं इन स्थलों से, कुछ अन्य भी हैं। उनसे उन क्षेत्रों के बारे में बहुत बातें होती रहीं। उस छोटे सी भेंट में विनय जी बहुत स्पष्टवादी और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी मालूम हुए।

एक और बात जो बाद में मालूम पड़ी वह विशेष ध्यान देने योग्य है कि यही सहपाठी विनय जी कालांतर में अनूप जी के साले भी हुए!

कुछ देर बाद अनूप जी ने बताया कि मसिजीवी भी पधार चुके हैं और मेरी उनसे भेंट करा कर वे अन्य अतिथियों के स्वागत में व्यस्त हो गये (देखिये कभी फुरसतिया भी व्यस्त होते हैं, हम तो साक्षी हैं)।

मसीजीवी बहुत मुखर स्वभाव के जान पड़े, उनसे बहुत सी बातें हुयीं। कुछ कुछ ब्लॉगिंग पर (अधिक नहीँ क्योंकि मैंने तो पहले ही इस संज्ञा से अपने को मुक्त मान लिया है फिर क्योंकर इन सीमाओं में रहें) हिन्दी चिट्ठाकारी, नारद के योगदान पर, कुछ व्यावसायिकता की संभावनाओं पर भी। इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्तिगत रुचियों और अपने व्यवसाय की भी। जब उनको ज्ञात हुआ कि मैं भी तकनीकी क्षेत्र से हूँ और विभिन्न संकायों में रहा हूं तब उस पर भी चर्चा हुई। उन्होंने कुछ तकनीकी सुझाव और समस्याओं को भी सामने रखा और राय-मशविरा किया।

वार्तालाप में हम इतने मगन थे कि हम भूल गये कि हम तो विवाह में सम्मिलित होने आये हैं और यही नहीं जल्द ही वापस भी जाना है। इतने में बारात का आगमन हो चुका था, सो जयमाल के बाद हमने विदा ली मसिजीवी से और वापस लौट चले। यह भी तय हुआ कि यदि संभव हुआ तो देर रात्रि हम पुन: लौट कर आयेंगे और फिर चर्चा का सिलसिला चलेगा, पर इसकी संभावना कम दिख रही थी और हुआ भी यही - हमारी पुन: भेंट नहीं हुयी और कुछ अन्यान्य बातों पर विचार-विमर्श मूर्त रूप न ले सका।

रविवार, 13 मई 2007

फुरसतिया जी का निमंत्रण और साली का विवाह

मई माह के आरम्भ में एक दिन फुरसतिया जी से बात हुई और उन्होंने बताया कि उनकी भतीजी स्वाति का शुभ-विवाह 8 मई, 2007 को निश्चित हुआ है, और हमें सम्मिलित होने का निमंत्रण भी दिया। फौरी तौर पर उस उत्सव में आने के लिये हमने भी हामी भर दी, अलबत्ता यह अवश्य कहा कि कदाचित लगभग उन्हीं दिनों, शायद एकाध दिन पहले ही मुझे भी कुछ आवश्यक कार्य है। क्या है और स्पष्ट रूप से किस दिन, यह नहीँ याद आ रहा (और वास्तव में भी ऐसा ही था, कुछ लग रहा था कि उन दिनों मुझे कुछ कार्य है, पर क्या है, नहीं ध्यान रहा)

कुछेक घंटे बाद ही (रात्रि तक) मुझे याद आया कि मेरी छोटी साली का भी विवाह उसी दिन (8 मई) को होना तय है, बाद में जब फुरसतिया जी पुन: बात हुई तब उनको बताया कि वह यह कार्य था, जो उस समय याद नहीँ आ रही था। अब क्या था, उनको तो मौज आ गयी। लगे कहने कि आखिर साली की शादी है, क्यों याद रहेगा? तो बकौल अनूप जी - यह समाचार सुखद होते हुए भी, हमारे दृष्टिकोण से साली की शादी क्योंकर सुखद होने लगी, और यही कारण है कि अरुचिकर समाचार मुझे विस्मृत हो गया ;) रोजमर्रा की विविध घटनाओं में चिट्ठे की संभावना विचारते वे तो यहाँ तक कहने लगे कि भई एक पोस्ट बनती है, इस घटना पर भी। (अब तो ठीक है अनूप जी!) यह मैंने बता ही दिया कि यह विवाह भी कानपुर में ही, और मेरे निवास स्थल के समीप ही है अस्तु कोई बात नहीँ हम आपके यहाँ अवश्य उपस्थित होंगे।

क्रमश:

शनिवार, 28 अप्रैल 2007

कम्प्यूटर व्यवसाय में अधिक आय - मेरे विचार

हाल ही में मिर्ची सेठ जी के चिट्ठे पर एक आलेख पढ़ा, ये कम्पयूटर वालों को इतने पैसे क्यों मिलते हैं?

एक बात की क्षमा चाहता हूँ, कि मैं टिप्पणी के स्थान पर अपने आलेख के माध्यम से अपने विचार रख रहा हूँ। यह कोई प्रत्युत्तर के रूप में नहीं है, कुछ संबंधित विचार हैं, कहीं विरोध भी। यहाँ सिर्फ इसलिये कि टिप्पणी अधिक बड़ी हो जाती, और कदाचित इसमें बाद में भी कुछ और भी लिखना हो तो इस कारण से इसे आलेख के रूप में कहना बेहतर लगा।

मैं भी इसी संगणक / अंतरजाल के व्यवसाय से संबद्ध हूँ, पर मेरा विचार आंशिक रूप से भिन्न है। इस विषय पर मेरे बहुत से विचार है, मैं सब तो नहीँ कह (टंकित कर) सकता पर दो बातें अवश्य -

1.) अधिक पैसे की बात सिर्फ दो या तीन मूल कारणों से है पहला सीधा सा अर्थशास्त्र का नियम कि माँग और आपूर्ति का अंतर। चूंकि यह अपेक्षाकृत नयी तकनीक है - मेरे विचार से अभी भी शैशव / बाल्य -काल में है, यदि आप सदियों पुराने विषयों, जैसे कि गणित, अर्थशास्त्र, रसायन शास्त्र, रासायनिक, यांत्रिक-अभियांत्रिकी से तुलना करें जो कि शताब्दियों से जानी जा रही हैं। संगणक तकनीक अभी कुछ ही दशकों से व्यवहार में आयी है तो सामान्य प्रयोक्ता इसके उपयोग / जटिलताओं के बारे में कम जानते हैं और इसका व्यावहरिक / व्यावसायिक प्रयोग बहुतायत में होने लगा है, तकनीक अपेक्षाकृत सुलभ है। मैं तो तब इससे जुड़ गया था जब इस तकनीक का प्रयोग मात्र शोध के लिये व मात्र उच्च स्तरीय अभियांत्रिकी / वैज्ञानिक संस्थानों में होता था। आज इसके जानने वालों की माँग अपेक्षाकृत अधिक है, आपूर्ति में तो बढोत्तरी तो काफी बाद में होना आरम्भ हुई (जब इसकी शिक्षा में भी सफल व्यवसाय दिखने लगा ;) तो माँग और आपूर्ति का पुराना सिद्धांत ही मूल कारण है इस व्यवसाय में अधिक आय का। शायद जब हवाई जहाज नये बने होंगे तो उसमें निष्णात कर्मचारियों का भी यही हाल रहा हो, बस अंतर यह कि उसका अनुप्रयोग इतना व्यापक नहीं रहा होगा जितना कम्प्यूटर का, सो माँग भी बहुत ज़्यादा न रही हो। अन्य कारणों की चर्चा फिर कभी, या नहीँ भी।


2.) दूसरी बात जो मिर्ची सेठ ने नवोत्पाद की कही, वह पूर्णत: सत्य नहीँ कही जा सकती, मैं इसे केवल आंशिक रूप में ही मानता हूँ। इस व्यवसाय में लगे अधिकतर लोग नव-सृजनात्मकता में नहीं लगे, वे मात्र किसी विकसित तकनीक पर अनुप्रयोग (Applications) बनाते हैं, या इन्हें संश्लेषित (Synthesis or Integrate) करते हैं, या फिर उनका संरक्षण (Maintenance) करते हैं... आदि । मात्र भिन्न प्रकार के प्रोग्राम लिखना, या भिन्न तकनीक पर काम करना सृजन नहीँ माना जा सकता। यह अवश्य है कि अपेक्षाकृत अधिक बदलाव और विकास है इस क्षेत्र में पर मूल-सृजन में लगे लोगों का अनुपात, कुल कर्मियों की अपेक्षा कम ही है, मूल-सृजन से मेरा अर्थ मूल-शोध और विकास से है। सामान्यत: इसमें लगे अधिकतर लोग अन्य व्यवसायों की भांति ही लगभग पूर्व-सृजित तकनीक पर कार्य करते हैं जिनमें प्रोग्रामर, Lead Developer, Analyst, Network Admin, DB Admin वगैरह हैं।

एक और बात यह कि अन्य व्यवसायों में नव-सृजनात्मकता कम होती है, ठीक नहीं। संगणक से सम्बद्ध क्षेत्र मेरा भी आय का स्रोत है पर दूसरे क्षेत्रों के योगदान को मैं सृजनात्मकता से विहीन नहीं मानता। अब मूल-भौतिक विज्ञान, या फिर धातु-कर्म (Metallurgy) को ही लें, यदि भौतिकी या धातुकर्म या फिर रसायन-विज्ञान, यही तो मूलभूत आधार है Silicon Chip के और उसमें अति-लघु स्तर पर निर्माण और उत्पादन के। यह बात अवश्य है कि इनका अनुप्रयोग इतना व्यापक नहीं जितना इन सिद्धांतों पर बने उत्पादों का! सो यदि इनमें नव-सृजन और मूलभूत शोध न होता तो इतने व्यापक स्तर पर संगणकों का प्रयोग ही न हो पाता और इनके कर्मियों की माँग भी कम रहती।

यही नहीं, मेरा तो मानना है, कि मूल-सृजन की संभावना तो हर क्षेत्र में हर समय रहती हैं, रहेंगी। कतई अलग विचारों में, मेरी अपनी सोच है कि बिलकुल सामान्य क्षेत्र जैसे कि काष्ठ-कर्म (बढ़ई का काम) या फिर ऐसे ही अन्य व्यवसाय जैसे कि वस्त्र-निर्माण कला इन सभी में सृजनात्मकता की संभावना सदा ही बनी रहती है और उच्च स्तरीय कर्मी उसमें भी अधिक आय अर्जित करते हैं, कर सकते हैं। शर्त यह कि वास्तव में मूल-सृजन हो, गुणवत्ता हो और उपयोगिता भी हो तो और अच्छा। अब क्या हम यह नहीं जानते कि कितने ही वस्त्र-विन्यासकार (Fashion Designer) या आंतरिक सज्जा विशेषज्ञ(Interior Designer) अनेक कम्प्यूटर वालों से अधिक अर्जन करते होंगे। बस अंतर यह कि उनकी संख्या सीमित है, क्योंकि इतने विशिष्ट उत्पादों व सेवाओं की मांग कम्प्यूटर की अपेक्षा कम ही है। क्या खान-पान, मदिरा व श्रंगार में प्रयुक्त सुगन्धि उत्पादों के विकास में कम आय है? यह भी एक अति-विशिष्ट, दीर्घ-कालिक अनुभव पर आधारित उद्योग है और इसके मूल विकास में लगे प्रति व्यक्ति की आय कहीं अधिक होती है, बस फर्क वही कि इनकी सीमित संख्या ही पर्याप्त है, अनेकानेक उपभोक्ताओं को आपूर्ति करने में, सो मांग कम ही है।

तकनीक को और भी सरल और सुलभ होने दें अवश्य ही यह अंतर कम होगा। यदि नहीं हो सका, तब भी होगा ? कैसे? बड़ी सरल बात है - यदि कम्प्यूटर कर्मियों की आपूर्ति बढ़ती रही (सो होगा ही, जब तक मांग है) और अन्य क्षेत्रों की कम हुई तो कभी तो स्थिति विपरीत होगी। कभी तो उत्पादन में या अन्य क्षेत्रों में निष्णात लोगों की कमी होगी उद्योगों को। तब.. ? तब स्थिति पलट होगी ही।

तो मैं तो यही मानता हूँ, कि यदि अर्थशास्त्र के सिद्धांत को व्यापक रूप में समझा जाय तो यही कारण मांग / आपूर्ति का अंतर समझ में आयेगा।

अब बहुत हो गया। इससे अधिक लिख पाने की न आवश्यकता है, न ही हिम्मत। फिर भी यदि और मूलभूत कारण हों, तो मैं भी उत्सुक हूँ जानने का, समझने का।

शनिवार, 21 अप्रैल 2007

तमसो मा ज्योतिर्गमय

फिर बिजली गुल!

आजकल तो गर्मियों का मौसम है, जब हमारे शहर और प्रदेश में साल के बाकी महीनों में बिजली की किल्लत हो तो गर्मियों में तो भगवान ही मालिक है। अब तो सुनते हैं कि और प्रदेशों व शहरों में भी बिजली की बहुत मारा-मारी है, खैर इस मामले में तो कानपुर के शहरी तो बहुत तजुर्बेकार है, औरों को अभी इस तजुरबे में शायद वक्त लगे।

कहाँ पड़ गये हम भी घिसी-पिटी, पुरानी बकवास को ले कर। अब चालू ही करी है तो इससे मिलता हुआ एक किस्सा ही हो जाये।

पिछले दिनों हम एक कार्यक्रम में शरीक हुए। वहाँ पर कुछ सामयिक व अन्यान्य विषयों पर चर्चा भी हुयी। एक सज्जन ने एक हास्य घटना सुनायी

एक माँ ने अपने पुत्र से, जो कि कक्षा 10 का छात्र था, एक प्रश्न किया -
"तमसो मा ज्योतिर्गमय... संस्कृत के इस सद् वाक्य का अर्थ बता सकते हो।"

रात का समय था, संयोग से बिजली भी चली गयी और अंधेरा छा गया

पुत्र बोला - "हाँ, क्यों नहीं माँ, बहुत आसान है, इसका अर्थ है कि -
माँ, तुम सो जाओ, (तमसो मा) बिजली चली गयी है (ज्योतिर्गमय) "

माता ने झल्ला कर कहा, "तुझे कुछ नहीँ मालूम, कल ठीक से पढ़ कर बताना"

अगले दिन दोपहर का समय था -

माँ - "क्यों बेटा, अब पढ़ लिया, अब तो बताओ कि तमसो मा ज्योतिर्गमय का क्या अर्थ है"

पुत्र - "हाँ, कल कुछ ग़लती हो गयी थी, इसका अर्थ है -

माँ, तुम सो जाओ (तमसो मा), मैं ज्योति के साथ जा रहा हूँ (ज्योतिर्गमय) "

इस घटना मैंने अपने एक मित्र को भी बताया, अभी उसके वास्तविक अर्थ पर बात नहीं हुयी थी। वहाँ पर उन मित्र का पुत्र भी मौजूद था, जब उससे भी यह प्रश्न किया गया, तो वह तपाक से बोला -

"इस स्लोगन को कहीँ देखा है, - हो न हो, यह भैया के स्कूल का ही स्लोगन है!"

अब देखते हैं कि देश के अन्य भावी कर्णधारों का क्या मत है इस विषय पर।

सोमवार, 19 मार्च 2007

कानपुर - बॉब वूल्मर की जन्म स्थली

क्रिकेट विश्वकप 2007 के दिनों बॉब वूल्मर (Robert Andrew Woolmer) के असामयिक निधन से पाकिस्तान टीम को तो आघात लगा ही है तथा सम्पूर्ण क्रिकेट जगत को भी भारी क्षति हुई है। वे एक पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी और बाद में एक पेशेवर क्रिकेट प्रशिक्षक के रूप में विख्यात थे।

कानपुर और विश्व क्रिकेट का सम्बन्ध तो विदित ही है परंतु कानपुर शहर और बॉब का भी गहरा संबन्ध रहा है। यहाँ के ही मैक-राबर्ट्स अस्पताल में श्री वूल्मर का जन्म हुआ था। मैक-राबर्ट्स अस्पताल के उस कक्ष में जहाँ श्री वूल्मर का जन्म हुआ था, उसे उनके नाम पर बॉब वूल्मर शल्य चिकित्सा कक्ष रखा गया है। बॉब वूल्मर पाकिस्तान क्रिकेट टीम के प्रशिक्षक के रूप में 2005 की भारत - पाकिस्तान प्रतियोगिता में व इसके पूर्व भी कानपुर आ चुके हैं। अपने कानपुर प्रवास के दौरान उन्होंने अपने जन्म स्थान, इस अस्पताल का भी दौरा किया था और चिकित्सकों व अधिकारियों से भेंट की थी।

शहर वासियों व पाठकों की ओर से श्री वूल्मर को हार्दिक श्रद्धांजलि।

बुधवार, 7 मार्च 2007

कॉफ़ी-कप में तूफ़ान - मोहल्ले के कॉफ़ी-हाउस से स्टारबक्स तक

आजकल तूफानों और झटकों का दौर है। अभी कुछ ही दिन पहले हमारे मोहल्ले में बहुत बहस-मुबाहिसा हुआ। अपनी बात कहने के सभी हथकंडे अपनाये गये। इधर से पोस्ट... उधर से टिप्पणी वगैरह..। जैसी उम्मीद थी, वैसे ही हुआ। खूब वाद-विवाद दृष्टांत आदि हुए। अंतत: एक सद्भावना भरे पत्र के बाद मुआमला कुछ ठंडा पड़ने लगा।

यह अभी खत्म हुआ नहीं था कि चिट्ठा-जगत में एक कॉफ़ी-हाउस खुल गया जहां हर कोई आ जा सकता था। लोग-बाग खुश हुए, तालियाँ भी बजायीँ कि अब तो यहाँ काफी की चुस्कियों का आनन्द भी मिलेगा। कॉफ़ी-हाउस तो खुलते ही कॉफी का वास्तविक (कड़वा) स्वाद दिलाने लगा। जब लोगों ने कहा कि कॉफी कड़वी है तब उन्हें दूसरे बाज़ार वालों का भी समर्थन मिलने लगा। वे भी कहने लगे - नहीँ-नहीँ कॉफी बिलकुल ठीक है और कुछ एक आभासी दावे भी पेश कर दिये। कॉफ़ी-हाउस वालों की हौसलाआफ़ज़ाई हो गयी। अपनी पुरानी बात अगले दिन पुन: प्रस्तुत कर दी - इस बार अपने ग्राहकों की शिकायतों और बाज़ार-वालों के समर्थन के साथ। एक ही बात कई बार और कई स्थानों पर सुनायी देने लगी

जब चिट्ठों और ब्लॉगरों से ध्यान हटा तो देखा कि अंतर्राष्ट्रीय कॉफ़ी-हाउस में भी हल्ला-गुल्ला हो रहा है। एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी वॉल-मार्ट और मित्तल जी का गठबंधन पहले ही समाजवादी जनता को भयभीत किए हुए था, एक और भी आने को तैयार है। अब हमारे यहाँ काफी पीने वालों की कोई कमी तो है नहीँ। हम तो बहुत पहले से एक बहुराष्ट्रीय ब्राण्ड की काफी पीते आ रहे हैं। कॉफी की एक और बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने भारत की ओर रुख किया, नाम तो बहुत से लोग जानते हैं - स्टारबक्स

हमारे देश की मशहूर सौन्दर्य प्रसाधन विशेषज्ञा शाहनाज़ जी, जो कि स्वयं में ही अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हैं और आयुर्वेदिक सौन्दर्य-प्रसाधनों से संबद्ध एक प्रसिद्ध व्यवसाय भी चलाती हैं। जब उन्होंने अपनी रिटेल-श्रृंखला की बात चलाई तो उसका नामकरण स्टारस्ट्रक्स रख डाला। यह नाम उपरोक्त विदेशी कम्पनी के नाम से कुछ मिलता जुलता था तो उस विदेशी कम्पनी के कॉफी हाऊस वालों को भी काफी की कड़वाहट महसूस होने लगी और भारतीय सरकार के दरबार में अपनी दु:ख भरी शिकायत पेश करी। हमारी सौन्दर्य प्रसाधन विशेषज्ञा ने भी कहा - आखिर बहुतेरे मिलते जुलते नाम होते हैं, करने दो उन्हें विरोध, हम भी मुकाबिला करेंगे।

इस विषय की अधिक जानकारी संजाल पर
http://news.yahoo.com/s/nm/20070305/od_nm/starbucks_starstrucks_dc
http://starbucksgossip.typepad.com/_/2007/03/starbucks_doesn.html

आजकल कॉफ़ी कुछ ज्यादा ही कड़वी हो चली है, चाहे वह मोहल्ले के बज़ार की हो, अपने कॉफी हाउस की, या फिर हो स्टारबक्स की।

चलते-चलते

एक वास्तविक भूकंप हमारे लोकप्रिय चिट्ठाकार को भी अनुभूत हुआ। सर्वशक्तिमान की कृपा से वे न केवल सुरक्षित रहे, वरन् अन्य पाठकों को इसका विवरण भी तुरंत दे डाला।


*लेख में प्रयुक्त ब्राण्डों के नाम उनकी कम्पनियों द्वारा पंजीकृत हैं

सोमवार, 5 मार्च 2007

कानपुर की अनोखी होली - स्वतंत्रता सेनानियों के इतिहास से

कानपुर की अनोखी होली
हमारे यहाँ भी अजीब चलन है| जब दुनिया भर होली खेल कर वापस अपने अपने कामों मे लग गयी होगी तब भी हमारे यहां होली की ही मौज बनी रहेगी। हम तो होली का त्योहार अपने ही समय से मनायेंगे। इस बात पर पहले कभी जीतू जी ने भी अपने चिट्ठे पर प्रकाश डाला था।

कानपुर शहर में होली की एक विशेष परम्परा हो गयी है। यहाँ होली का त्योहार लगभग 4-7 दिन तक चलता है। किसी वर्ष 3-4 दिन ही और कभी-कभी 7 दिन तक - यह निर्भर करता है नक्षत्रों की स्थिति पर। सामान्य रूप से जिस दिन देश भर में होली होती है, यहाँ पर भी उसी दिन मनायी जाती है पर उससे भी कहीं अधिक यह अंतिम दिन मनायी जाती है। इस दिन संध्या काल में गंगा के किनारे मेला भी लगता है। इस दौरान सभी दिनों शहर के थोक व्यापार लगभग बन्द ही रहते हैं और आखिरी दिन अर्थात् मेले वाले दिन होली की उमंग और रंग, दोनों ही सबसे अधिक होते हैं और इस दिन तो न केवल थोक वरन् फुटकर बाज़ार और स्थानीय कार्यालय भी बन्द रहते हैं।

यह क्यों और कब से होता आ रहा है? यह कोई बहुत पुरानी या कोई धर्मिक परम्परा नहीं है, कोई मान्यता भी नहीं। इस प्रकार होली मनाने का चलन कानपुर में अंग्रेज़ी हुकूमत के ज़माने से प्रारम्भ हुआ था और इसकी पृष्ठभूमि में हमारे स्वतंत्रता सेनानियों, क्रांतिकारियों की और उन पर ब्रिटिश सरकार के ज़ुल्म की दास्तान है।
स्वतंत्रता सेनानियों के इतिहास से
कानपुर के पुराने शहर के मध्य में स्थित हैं कुछ मोहल्ले - जिनमें प्रमुख हैं - मनीराम बगिया, हटिया, फीलखाना आदि। ब्रिटिश हुकूमत के समय इन मुहल्लों में शहर के प्रमुख क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी रहा करते थे और अन्य शहरों व प्रदेशों के अन्य क्रांतिकारी भी यहां आते-जाते रहते थे। इनमें से प्रमुख नाम जो याद आ रहे हैं उनमें चन्द्रशेखर आज़ाद, नेताजी सुभाष बोस आदि भी थे। वे अपनी सार्वजनिक सभायें भी यहां करते और विभिन्न प्रकार की योजनाओं पर विचार भी। यहाँ के हटिया क्षेत्र में एक सार्वजनिक पार्क ऐसी कई सभाओं का साक्षी रहा है।

उन्हीं दिनों एक बार होली के ठीक पहले ऐसी ही एक सभा यहाँ के हटिया पार्क में चल रही थी। कई स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी उस सभा में शामिल थे। ब्रिटिश हुकूमत इनके कारनामों से त्रस्त हो चुकी थी और इनको गिरफ्तार करने की फिराक में थी। इस अवसर का लाभ उठाते हुए अंग्रेज़ी पुलिस के अफसरों ने उस पार्क पर धावा बोल दिया और वहाँ मौजूद क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार कर उनको जेल में बन्द कर दिया। सरकार का विरोध करने के आरोप लगाये गये उनपर।

स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तारी का समाचार जंगल की आग की तरह शहर भर में फैल गया। होली के पर्व पर विदेशी हुकूमत की ऐसी धांधागर्दी का विरोध करना तय किया गया। व्यापारी और आम-नागरिक सभी ने आम सहमति बनायी और विरोध प्रकट करने के लिये होली जैसे महत्वपूर्ण पर्व का बहिष्कार करना निश्चित हुआ। नागरिकों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया कि जब तक अंग्रेज़ी सरकार हमारे क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों को रिहा नहीँ करती, कोई शहरवासी होली नहीँ मनायेगा और इस प्रकार नियत तिथि को होली नहीँ मनायी गयी

पहले ब्रिटिश सरकार ने समझा होगा कि यह मात्र एक ही दिन का विरोध है परंतु जब होली पर भी हमारे क्रांतिकारियों को मुक्त नहीँ किया गया तब होली के बाद भी शहर के प्रमुख बाज़ार बंद रखे गये। अंतत: कुछ दिन बाद सरकार को जनता के विरोध के आगे घुटने टेक देने पड़े और उन बंदी क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों को रिहा कर दिया गया।

फिर क्या था, शहर के नागरिकों में उल्लास था, खुशी थी अपनी विजय की और क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों के मुक्त होने की। तब होली का त्योहार पहले की अपेक्षा अधिक जोश और उमंग से मनाया गया। भंग की तरंग और होली के रंगों के साथ। जेल के ही पास गंगा के पावन तट पर बने सरसैया घाट पर वृहद मेले का आयोजन किया गया। नक्षत्र गणना के अनुसार उस दिन अनुराधा नक्षत्र था अत: वह एक मानक दिवस बन गया। कानपुर में उस वर्ष के बाद प्रतिवर्ष होली को उस विजय रूपी पर्व और क्रांतिकारियों की मुक्ति की वर्षगाँठ के रूप में मनाया जाने लगा।

वर्तमान परिदृश्य
अंग्रेज़ तो कब के चले गये हैं पर हम शहरवासी स्वतंत्रता के पुजारियों की उस विजय-स्मृति में होली के बाद अनुराधा नक्षत्र वाले दिन भरपूर होली खेल कर और सरसैया घाट पर गंगा मेले के रूप में मनाते हैं। कभी तो यह होता है होली के 3-4 दिन बाद ही और कभी 5-7 दिन बाद।

वर्तमान काल में इसका रूप कुछ और भी बदल गया है। तेज़ी से बदलते सामाजिक परिवेश में अब उन स्वतंत्रता सेनानियों की घटना को तो बहुतों ने जाना ही नहीँ और इसकी विशेष आवश्यकता भी अनुभव नहीँ करी जाती। शहर की मुख्य मंडियाँ व थोक बाज़ार अब भी 3-6 दिन आंशिक या पूर्ण रूप से बंद रहते हैं। श्रमिक और कर्मचारी भी इन दिनों लगभग अनुपस्थित ही रहते हैं। अब तो बहुत से उद्योगपति और व्यापारी इस अवसर को अलग रूप में देखते हैं। उनका मानना है कि वर्ष भर इस प्रकार लगतार 3-6 दिन की छुट्टी तो कभी और सम्भव नहीँ होती तो वे इस अवसर का लाभ उठाते हुए मित्रों अथवा परिवार सहित किसी तीर्थस्थान अथवा पर्यटन स्थल पर भ्रमण कर सप्ताह भर छुट्टी मनाते हैं। उधर गंगा मेले को जन-सम्पर्क का अच्छा अवसर मान जन प्रतिनिधि भी जन-सामान्य के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज़ करना नहीँ भूलते और अपनी लोकप्रियता का दायरा बढ़ाने का भरसक प्रयास करते हैं।

तो चलते हैं हम अभी तो। गंगा मेला तो इस वर्ष (2007) में 10 मार्च को निश्चित हुआ है। तब होगी कानपुर की असली होली। आज होली के दिन यदि कोई होली मनाने से वंचित रह गया हो तो अभी मौका नही गया है। कानपुर आपकी प्रतीक्षा करेगा गंगा मेले तक।

अभी तो हम अपने एक मित्र के घर होली की काव्य-गोष्ठी का आनन्द ले कर आ रहे हैं। फुरसतिया उर्फ अनूप जी भी साथ में थे । कभी इसका जिक्र बाद में...

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2007

प्रश्नव्यूह - चिट्ठे, फिल्में, पुस्तकें और वरदान

यह चिठ्ठी भी बड़ी हो गयी है। कई प्रश्नों के उत्तर देने थे, वह भी कारण सहित। हम समझ बैठे कि कोई वरिष्ठ पत्रकार हमारा सक्षात्कार ले रहा है। इसी ख़ुशफ़हमी में बहुत लिखना हो गया... उत्तर पहले ही तैयार था पर सम्पादित और छोटा करने के निरर्थक प्रयास में दो दिन व्यर्थ गये।

इस चिट्ठी को लिखना विवशता ही थी। कारण कि मुझको उन्मुक्त जी के अनमोल तोहफे में नामित कर दिया गया कुछ व्यक्तिगत प्रश्नों के उत्तर देने के लिये और फिर वह डर... सर मुँड़ाते ही ओले पड़े

उन्मुक्त जी की प्रश्नावली इस क्रम से थी:
1. आपकी सबसे प्रिय पुस्तक और पिक्चर कौन सी है?
2. आपकी अपनी सबसे प्रिय चिट्ठी कौन सी है?
3. आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते हैं?
4. क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तिव में कुछ परिवर्तन या निखार किया?
5. यदि भगवान आपको भारतवर्ष की एक बात बदल देने का वरदान दें, तो आप क्या बदलना चाहेंगे?

प्रथम दृष्टया अधिकतर सवाल मुश्किल प्रतीत हुए। प्रश्नों पर पुन: ध्यान देने पर लगा कि बात इतनी कठिन नहीँ है - ख़ासतौर पर मेरे लिये। क्यों भई..., मैं अधिक चतुर या हाज़िर-जवाब हूँ? नहीँ, यह बात नहीँ पर ध्यान दें कि दो प्रश्न (प्र. 2, 4) ऐसे है, जो कि अपने चिठ्ठा-लेखन पर आधारित हैं और चूँकि मेरा चिठ्ठा लेखन जुमा-जुमा कुछ दिन ही पुराना है, लिहाज़ा इनसे मैं बडी, चतुरता से कन्नी काट सकता हूँ अथवा इनका उत्तर मेरे लिये बहुत सरल होगा।

इन प्रश्नों के उत्तर के क्रम में मैं कुछ बदलाव करूंगा। सरल प्रश्नों के उत्तर पहले और कठिन प्रश्नों के बाद में। परीक्षा प्रश्न-पत्र के उत्तर में भी अधिकतर विद्यार्थी ऐसा ही करते हैं। तो मेरा पसंदीदा क्रम होगा - 2,3,4 और 1, 5 । ध्यान दिया जाय कि इन पाँच प्रश्नों में वास्तव में छुपे हैं छ: प्रश्न। जरा, प्रश्न सं. 1 को देखें (पुस्तक और फिल्म) - यह बिल्कुल वैसे ही है - जैसे कि परीक्षाओं में होता है - प्रथम प्रश्न के दो भाग - (क) और (ख) - और दोनों ही अनिवार्य।

पहला उत्तर
प्र. 2. आपकी अपनी सबसे प्रिय चिट्ठी कौन सी है?
उ. यदि मैं एक लम्बे अरसे से लिख रहा होता अथवा कम अरसे में ही ढेरों चिट्ठियाँ लिख मारी होतीँ तब तो यह कठिन था। लेकिन नहीं- शायद तब भी नहीं (यह तो उत्तर से मालूम हो जायेगा) परंतु यहाँ तो स्थिति सरल है - कुल जमा 2-3 पोस्टोँ से चुनाव करना बहुत आसान है - सर मुँड़ाते ही ओले पड़े व यह पोस्ट तो सवाल-जवाब, अर्थात एक ही मसले में गिन लेते हैं। अब बची सिर्फ दो - सुरभित डाक-टिकट और मास्टर साहब । तो मामला बिल्कुल साफ है - मेरी सबसे अच्छी पोस्ट नि:संदेह मास्टर साहब ही है

इसके और भी कारण हैं - यदि मैंने सैकड़ों पोस्टें भी लिखी होतीं तब भी मेरे लिये वही सर्वोत्तम होती। एक तो वह चिट्ठी प्रथम है और प्रथम का स्थान तो सभी जानते हैं! दूसरे यह कि जिस व्यक्ति के लिये वह पोस्ट है, उन्हीं की शिक्षा के परिणाम स्वरूप मैं आज कुछ भी लिख पा रहा हूँ। गुरु का स्थान तो सभी से ऊपर होगा ही। एक और बड़ी वजह - यदि कभी ऐसा भी हो कि उस पोस्ट को कई व्यक्ति पढ़ चुके हों, जिनमें शिक्षक, विद्यार्थी अथवा अभिवावक शामिल हों और एक..., मात्र एक की शिक्षा, जीवन या व्यवहार उससे लाभान्वित हो, तो यह मेरा सौभाग्य होगा। मैं तो गुरु - ऋण को नहीँ चुका पाया हूँ पर इस प्रकार किसी के भी लाभान्वित होने से यदि उस ऋण का एक अंश भी चुकता हो पाता है, तो ऐसी स्थिति में मैं क्या, कोई भी ऋणी व्यक्ति प्रसन्न ही होगा। यदि एकाधिक व्यक्तियों का भला हो तो कहने ही क्या! इस कारण यह मेरी सबसे प्रिय चिठ्ठी है। जानकारी हेतु संदर्भ देखें - मास्टर साहब

दूसरा उत्तर
प्र. 3. आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते हैं?
उ. बहुत सरल प्रश्न है यह मेरे लिये। ध्यान दें - यदि कहीं यह प्रश्न जरा सा भी घूम जाता तो बड़ी मुश्किल पड़ जाती। यदि कोई चिठ्ठों अथवा चिठ्ठाकारों के नाम पूछ लेता तो शायद यह प्रश्न छोड़ देना पड़ता। यह वैसे ही है, जसे परीक्षा में होता है। कोई-कोई प्रश्न बड़ा कठिन होता है, पर सौभाग्य से परीक्षा में उसका अपेक्षाकृत सरल रूप पूछा जाता है।
मैं कई प्रकार के चिठ्ठे पसंद करता हूं - जैसे, व्यंग्यात्मक, सूचनापरक, तकनीकी विषयों पर लिखे गये चिट्ठे, हल्के फुल्के और अपने आप में संपूर्ण चिट्ठे। स्वास्थ्य, यात्रा-वृतांत और छायाचित्रण से सम्बन्धित चिट्ठे भी मेरी रुचि की परिधि में हैं। अमाँ, सब-कुछ तो है अपनी पसंद में, क्या नहीं है? तो, मैं काव्य-पाठ सुनने में तो विशेष रुचि रखता हूँ पर पढने में यदा-कदा वह आनन्द नहीं आता। यद्यपि कभी-कभी स्वत: ही नज़र पड़ जाती है और मैं अपने सामने पाता हूँ - एक उत्कृष्ट कविता। कभी-कभी उन पर टिप्पणी भी की है। सारांश यह, कि मैंने प्रयत्न नहीं किया पर कई बार अच्छी कविताएं अपने आप ही दिख गयीँ और स्वयं ही पढ़वा गयीं मुझे। राजनीतिक समीक्षाओं वाले चिठ्ठे भी मुझे विशेष नहीं लुभाते।

तीसरा उत्तर
प्र. 4. क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तित्व में कुछ परिवर्तन या निखार किया?
उ. यह भी बहुत सरल प्रश्न है- केवल मेरे लिये। वही बात- जो लोग अरसे से लिख रहे हैं, वे कदचित सही उत्तर दे सकें। अब 2-4 पोस्टों से तो कोई चिठ्ठाकार की उपाधि नहीं प्राप्त कर लेता सो मैं इस प्रश्न से भी बाहर हो सकता हूँ। कहीं यदि कोई प्रार्थना-पत्र भर रहा होता तो साफ-साफ लिख देता - लागू नहीँ होता (Not Applicable) पर चलो कुछ तो कहते हैं यहाँ। इस प्रयास ने व्यक्तित्व में कुछ परिवर्तन या निखार तो नहीं किया - दो पोस्टों में भला क्या व्यक्तित्व-निखार आवेगा? एक बात स्पष्ट है - समय-सारिणी में परिवर्तन जरूर कर दिया है। हिन्दी पढ़ते हमेशा रहे, अच्छी भी लगती रही, पर लेखन - कभी नहीं... सोचा भी नहीं और टंकण, बाप रे बाप...। वर्षों तक कुंजी-पटल पर if, Dear, Thanks, टिप-टिपाने के बाद जब हिन्दी में टंकण करना पड़ता है और 1 मिनट का कार्य 5 मिनट में हो पाता है तो...? अब चिठ्ठाकार तो यह सब जानते ही हैं। जाके पैर न पड़ी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई | जब से यह 2-3 पोस्टें लिखी हैं, तब ही जान पाया हूँ इस यंत्रणा को। सो इस मशक्कत ने तो समय-सारिणी को खा ही डाला है। बस यही एक बड़ा... बहुत बड़ा और अनामंत्रित परिवर्तन आया है।

चौथा उत्तर
प्र. 1. आपकी सबसे प्रिय पुस्तक और पिक्चर कौन सी है?
उ. (ख) प्रिय चलचित्र
यह भी आसान होता जान पड़ता है। मैं चलचित्र दिखने का शौकीन तो हूं नही लिहाज़ा अक्सर अपने मित्रों, में बड़ी उलाहना पाता हूँ। जब कभी किसी ने चलचित्र देखने की पेशकश की, मैं कन्नी काटता दिखाई दिया। मुम्बई प्रवास के दौरान जब मेरे मित्र चलचित्र देखने गये तब मैंने उस अवधि में रात्रि-काल में 3 घंटे एकांत में निर्जन समुद्र-तट का विचरण बेहतर समझा। बडे रुष्ट थे वे मित्र मुझसे। इसका यह अर्थ नहीं कि मैंने कभी कोई चल-चित्र देखा न हो। घर बैठे टीवी./ डी.वी. पर मैं यदा-कदा फिल्म देख लेता हूँ - आंशिक ही सही। रही पसन्दीदा फिल्म की बात - तो मुझे कई फिल्में पसन्द हैं। यदि एक से अधिक को चुनना होता तो आसान होता, सर्वाधिक प्रिय फिल्म तो ऐसी है कि लोग कहेंगे कि...। चलिये, मैं चुनता हूँ... एक विशिष्ट फिल्म को... जिसका नाम है... पुष्पक 1988 में बनी और कमाल हसन, अमला व टीनू आनंद द्वारा अभिनीत । कारण - जिन्होंने देखी है, वे जानते होंगे कि यह आधुनिक काल में बनी एक मूक फिल्म है। मूक फिल्में और भी बनी है, बहुत पहले भी बनती थीँ। उस समय तकनीकी बाध्यताएं रही होंगी, पर इस फिल्म को मूक बनाने में कोई तकनीकी विवशता नहीं रही होगी। संवाद हीनता के होते भी, इस फिल्म में कहीं भी, कभी भी, संवादों का न होना केवल अखरता ही नहीं, अपितु संवाद शून्यता का आभास ही नहीं होता। किसी पात्र के न बोलते हुए भी पूरी कथावस्तु पूर्ण प्रभावी रूप में प्रस्तुत की गयी है। मैं समझता हूँ, कि कहानीकार, छायाचित्रकार, संगीतकार, दिग्दर्शक और पात्रों को कड़ी मेहनत करनी पड़ी होगी, इसे बनाने में। यह कारण है कि मुझे यह फिल्म प्रिय लगी।

उ. (क) प्रिय पुस्तक
सावधान! यह सवाल तो अच्छा है पर उत्तर दीर्घाकार ।...

पुस्तकें मेरी प्रिय मित्र थीँ। मेरी रुचियाँ विविध प्रकार की रहीं है और विविध विषयों की पुस्तकें पढ़ी है - परंतु एक क्षेत्र विशेष में नहीं और न ही किसी विषय में निष्णात हूँ। इस कारण पहले कुछ रुचिकर विषयों के बारे में लिखना बेहतर होगा। पाठ्यक्रम में कई साहित्यकारों को पढ़ना रुचिकर लगा - प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला, सांकृत्यायन, टैगोर, वेल्स। स्कूल में विवेकानन्द साहित्य भी पढ़ाया गया जो कि उपयोगी व प्रेरणास्पद था। इसके अतिरिक्त विज्ञान की ग़ैर-पाठ्यक्रम की पुस्तकें मज़ेदार लगती थीं। मेरी माँ ने अविष्कारकों की कथाएं - जिसमें गैलेलियो, न्यूटन, वशिंगटन कार्वर थे और क्यूँ और कैसे (How and Why) की पुस्तकें दी थीं और ये मुझे रोचक लगीँ।

तकनीकी शिक्षा के दिनों में पुस्तकालय मेरा प्रिय स्थान था - पाठ्य-पुस्तकों से अधिक विविध विषयों की पुस्तकों हेतु। पहली बार इतना विस्तृत भंडार देखा था पुस्तकों का। यदा-कदा विमल मित्र, शरतचंद्र, भीष्म साहनी आदि के उपन्यास पढे जो कि अच्छे लगे। कभी गाँधी की आत्मकथा (... Experiments with truth... अपूर्ण पढ़ी), कभी एरिक सीगल (Eric Segal) की लव स्टोरी व ओलिवर्स । कोनन डॉयल (Sir Arthur Conan Doyle) की शेरलॉक होम्स में विशेष आनन्द आता था, अब भी आता है - होम्स और वॉट्सन की चिर-परिचित शैली में। अधिकांशत: तकनीकी पुस्तकें, और पत्रिकाएं ही पढीं। उन्मुक्त जी, मैंने आप द्वारा बताई गयी - "Surely, You are Joking Mr. Feynman" भी पढ़ी (आंशिक), मज़ा आया। फ़ोटोग़्राफी की भी पुस्तकें पढ़ी पर शौक महंगा था। सुगन्धि विज्ञान की पुस्तकें पढ़ीं भी और कुछ प्रयोग भी किये। रचनाएं तो अनेक अच्छी लगीं - जैसे नागार्जुन की कविता बादल को घिरते देखा है (अति कलामय, चित्रात्मक), राग-दरबारी, ईदगाह (प्रेमचंद), तमस (भीष्म साहनी) , Lady Chatterly... (Lawrence), Dr. Zhivago (Boris Pasternak) आदि।

अब इंटरनेट के बाद से तो क्या कहने... यह बात मैं मानता हूँ, कि पुस्तकों में जो आनन्द और एकाग्रता सम्भव थी, इंटरनेट से नहीँ। इंटरनेट पर विषय का विस्तार और अन्य सदर्भित सामग्री (Hyperlinks द्वारा) बहुत है। यही कारण है अब मेरा पुस्तकों से मित्रता न निभा पाने का और यही कारण इस बात का भी है कि हम भागते रहते हैं - इधर से उधर - एकाग्रता नहीं होती परंतु विविधता के होते, बहु-विषय में रुचि होते और सरल साधन के कारण अब पठन-पाठन तो होता है, मगर पुस्तकें नदारद हैं - अंतर्जाल ने उनका स्थान ले लिया है। विविधता की कोई सीमा नहीं है अब।

ऐसे अपूर्ण और विविध पाठन के चलते सर्वाधिक प्रिय पुस्तक कैसे? ठीक है, दो पुस्तकों का उल्लेख करता हूँ।

उपन्यासों की श्रेणी में मै नि:सन्देह उल्लेख करूंगा विमल मित्र के उपन्यास "खरीदी कौड़ियों के मोल" का। वृहद उपन्यास - जो कि प्रस्तुत करता है तात्कालिक समाज की छवि - दीपंकर, लक्ष्मी दी, सती दी, सनातन बाबू और अघोर दादू जैसे पात्रों के व्यवहार एवं चरित्र के माध्यम से। विश्व-युद्ध और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की समकालीन बदलती घटनाएं समानांतर रूप से रुचिकर कथानक की पृष्ठभूमि हैं। बारम्बार सोचने पर विवश करती है कहानी कि कौड़ियों से सब कुछ खरीदा जा सकता है अथवा नहीं और धैर्यवान पाठक प्रारम्भ से अंत तक झूलते रहते हैं - हाँ और नहीँ के बीच। इस उपन्यास में समाज की बुराइयां, अच्छाइयाँ, दम्भ, सहिष्णुता, प्रीति, ग्लानि.. अर्थात अनेक भावनाओं का भी समावेश है।

एक उल्लेखनीय और मज़ेदार पुस्तक - Elementary Pascal: Teach Yourself Pascal by Solving the Mysteries of Sherlock Holmes (Henry Ledgard and Andrew Singer) यह अपने आप में अनोखी किताब थी, जिसमें कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की भाषा पास्कल को बड़े मनोरंजक ढंग से समझाया गया था और जब शेरलॉक होम्स और डॉ. वॉटसन के माध्यम से गुत्थी सुलझाते हुए प्रोग्रामिंग समझाई जाए तो आनन्द आना स्वाभाविक था। पुस्तक मिलने से पूर्व पास्कल मुझे आती तो थी, इस पुस्तक को इसलिये पढ़ा कि देखें रहस्य कथाओं और कम्प्यूटर की शिक्षा का मेल कैसा रहता है।

पाँचवां उत्तर
प्र. 5. यदि भगवान आपको भारतवर्ष की एक बात बदल देने का वरदान दें, तो आप क्या बदलना चाहेंगे?
उ. 5. क्या प्रश्न दिया है महाराज! एक कहावत / कविता याद आती है -
If wishes were horses, beggars would ride...

अब कल्पना ही करनी है, तो कोई बन्धन कैसा! हम सभी चाहेंगे भारतवर्ष में बहुत कुछ बदलने को... सहसा विश्वास ही नहीँ होता कि ऐसा वरदान मिल सकता है... इसीलिये तो कुछ समझ नहीं आता... कि क्या मांगा जाय...

सोचता हूँ... शिक्षा पद्धति... या... सैन्य-बल... या... वाणिज्य-व्यापार... या राजनैतिक-परिवेश... शासन-व्यवस्था... टेक्नॉलॉजी... बड़ी मुसीबत है... किस एक को चुनूँ?

कल्पना के घोड़ों को दौड़ाने में क्या लगता है? जब मात्र कल्पना ही करनी है, तो दूर की ही की जाय... एक वरदान में ही ऐसा किया जाय कि सभी कुछ, या बहुत कुछ अच्छा हो जाय... ऐसी कोई जुगत मिले तो मज़ा है!

तो यह (?) ठीक रहेगा...
वैसे तो यह हो ही नहीं सकता, यदि भगवान स्वयं चाहें तब भी। उनकी भी आखिर सीमाएं हैं।

ऐसा भला क्या है जो वे भी नहीं कर सकेंगे? वे तो सर्वशक्तिमान हैं।

हां ऐसा है...। काल-चक्र को वे भी नहीं रोक सकते, और उसे पीछे ले जाना भी उनके लिये भी ना-मुमकिन है। कदाचित ऐसा मानना है कि वे भी काल चक्र का उल्लंघन नहीं कर सकते।
तब...? मेरी तो यही कामना थी...

क्या देश को बंटवारे के पूर्व ले जाना चाहते हो?
नहीं और पीछे...

क्या रामराज्य चाहिये? ...
अरे, क्या बात है!... परंतु नहीँ, तब तो बड़ी गड़बड़ हो जायेगी! ... कुछ चुनिन्दा लोगों का, दलों का ही बोलबाला हो जायेगा!

तो थोड़ा वापस चलें? ...
हाँ यदि सम्भव हो तो भारत के काल-चक्र को चन्द्रगुप्त मौर्य या सम्राट अशोक के काल अथवा गुप्त काल विक्रमादित्य में रोक दें, बस इतना ही बहुत है, फिलहाल!

क्यूँ भला...? तब तो MNC, NRIs और FIIs, FDIs सब ग़ायब हो जायेगा? यह कम्प्यूटर, मोबाईल, इंटरनेट... कुछ भी नहीं होगा? तुम भी नहीँ? आधुनिक तकनीकी ज्ञान भी नहीँ?... क्योँ? क्या कहते हो ?

हाँ वह तो है, पर मुझसे कहा गया था, भारतवर्ष के लिये कुछ वरदान मांगने को - तो यही तो वे कालखंड हैं, जिनमें भारतवर्ष का सैन्य बल, शिक्षा पद्धति, अर्थशास्त्र, शासन-प्रणाली, नक्षत्र-विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान, धातु-कर्म, गणित, नीति-शास्त्र आदि अपनी चरम सीमा पर थे। इन्हीं में से एक काल ख़ंड को भारतीय इतिहास का स्वर्ण-युग भी कहा गया है तथा एक और काल-खंड में भारत की सीमाएं अपनी शिखर पर थीँ। इन्ही काल खंडों में ही हमारे तक्षशिला और नालन्दा जैसे शिक्षण संस्थान विश्व प्रसिद्ध थे और सम्पूर्ण विश्व में भारत को अति सम्मान के रूप में देखा जाता था। अब कौन नहीं चाहेगा विश्व में सर्वोच्च सम्मान वाले देश का नागरिक होना? रामराज्य या वैदिक काल न ही सही, पर एक शक्तिशाली और सम्पन्न तो होगा यह राष्ट्र।

और तो और, इस प्रकार के एक वरदान के पूरे होने से अनेक क्षेत्रों में बदलाव हो जायेगा और कदाचित बेहतरी की ओर ही।

अब यदि भगवान यह कर पाएं... तो टिप्पणी अथवा ई-मेल द्वारा बताएं!


आगे की कड़ी -
अब आती है, प्रश्नों की बारी - तो मैंने इस खेल में विविधता / चुनौती लाने के लिये अन्य शाखाओं में पूछे गये कुछ अतिरिक्त प्रश्नों का समावेश किया है। इसका मतलब यह नहीं कि प्रश्न अधिक है। उत्तरदाताओं की सुविधा और स्वतंत्रता का भी ख़्याल रखा है।
(कुछ मुश्किल बढ़ाते है, किंतु सुविधा भी। आपकी सुविधानुसार कोई भी पांच प्रश्न चुन लें, सभी समान महत्व के हैं)

1. आपकी दो प्रिय पुस्तकें और दो प्रिय चलचित्र (फिल्म) कौन सी है?

2. इन में से आप क्या अधिक पसन्द करते हैं पहले और दूसरे नम्बर पर चुनें - चिट्ठा लिखना, चिट्ठा पढ़ना, या टिप्पणी करना, या टिप्पणी पढ़ना (कोई विवरण, तर्क, कारण हो तो बेहतर)

3. आपकी अपने चिट्ठे की और अन्य चिट्ठाकार की लिखी हुई पसंदीदा पोस्ट कौन-कौन सी हैं?
(पसंदीदा चिट्ठाकार और सर्वाधिक पसंदीदा पोस्ट का लेखक भिन्न हो सकते हैं)

4. आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते हैं?

5. चिट्ठाकारी के चलते आपके व्यापार, व्यवसाय में कोई बदलाव, व्यवधान, व्यतिक्रम अथवा उन्नति हुई है
(जो किसी व्यवसाय अथवा सेवा में नहीं हैं वे अन्य प्रश्न चुनें)

6. आपके मनपसन्द चिट्ठाकार कौन है और क्यों?
(कोई नाम न समझ मे आए तो हमारा ले सकते हैं ;) पर कारण सहित)

7. अपने जीवन की सबसे धमाकेदार, सनसनीखेज, रोमांचकारी घटना बतायें
(इसके उत्तर में विवाह की घटना का उल्लेख मान्य नहीँ है ;) )

8. आप किसी साथी चिट्ठाकार से प्रत्यक्ष में मिलना चाहते हैं तो वो कौन है? और क्यों?

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निम्न चिट्ठाकारों आग्रह है कि इस प्रश्नव्यूह को स्वीकार कर, कड़ी को आगे बढ़ाने में सहयोग करें


Divine India - दिव्याभ जी - http://divine-india.blogspot.com/
फ़लसफे - पूनम मिश्रा जी - http://poonammisra.blogspot.com/
घुघूती बासूती जी - http://ghughutibasuti.blogspot.com/
लखनवी - अतुल श्रीवास्तव जी - http://lakhnawi.blogspot.com/
दस्तक - सागर जी - http://nahar.wordpress.com/

सोमवार, 19 फ़रवरी 2007

सर मुँड़ाते ही ओले पड़े

पहले ही अपने आप से कहा था,

बच्चू! इस ब्लॉगिंग-वॉगिंग, चिठ्ठाकारी, लिखने, टीका-टिप्पणी आदि में मत पड़ो, बस चुपचाप पढ़ते रहो और बाकी अपने काम से काम रखो।
पर नहीं मानी, तुमने मुफ्त में मिलने वाली अपने भले की राय।

जुमा-जुमा अभी चंद दिन ही हुए थे पहली पोस्ट को- एक नवजात चिठ्ठा ही तो था। कुल जमा दो ही पोस्ट लिखी थीं, और न कोई और लिखने का इरादा ही था। पर होनी को कौन टाल सकता है - अब तो दबोच ही लिया गया। आखिर नामित (टैग) कर ही दिया, उन्मुक्त जी के इस आदेश ने! एक-दो नही, पूरे पाँच प्रश्नों के साथ। इसी को न कहते हैं- सर मुँड़ाते ही ओले पड़े, इससे अच्छा उदाहरण तो हो ही नहीं सकता, मेरे पास। अब तो मुझे यह आदेश मानना ही पड़ेगा।

आखिर क्यों भला...?

यदि मुझे प्रश्नों के उत्तर न पता होते तो ठीक ही था, पर बखूबी याद है मुझे विक्रम-वेताल की कथाएं, वेताल के प्रश्न और विक्रम की दुविधा -
राजन्, यदि इस प्रश्न का उत्तर तुमने जानते हुए भी नहीं दिया तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे

या कि फिर चिट्ठाजगत का निम्न संस्करण

चिठ्ठाकार, यदि इन प्रश्नों का का उत्तर तुमने जानते हुए भी नहीं दिया तो तुम्हारे चिठ्ठे से टिप्पणियाँ ग़ायब हो जायेंगी (चिठ्ठाकार: कोई बात नहीँ, हैं ही कितनी जो भय हो?) और तुम्हारा चिठ्ठा पढ़्ने का अधिकार भी समाप्त हो जायेगा (यह गम्भीर चेतावनी थी)

या कि यक्ष द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर को दी गयी चेतावनी और तदुपरांत पूछे गये प्रश्न

(क्षमा करें, मैं प्रश्नकर्त्ता या अपनी कोई तुलना नहीँ कर रहा, केवल परिस्थिति का साम्य सोच रहा हूँ)

दूसरा कारण यह कि उत्तर देने के बाद ही तो अधिकार मिलेगा - औरों को चक्रव्यूह में फंसाने का

अभी कुछ को तो पहले ही लपेटना पड़ेगा, "क्या करें... कंट्रोल ही नहीं होता"!

सुख - चैन के दिन

मैं तो हिन्दी लेखों का एक उन्मुक्त पाठक था, (नहीँ जी, वो हिन्दी चिठ्ठे वाले उन्मुक्त नहीँ... वे उन्मुक्त नहीं, प्रमुख अभियुक्त हैं)। जहाँ मन करता, मैं वहाँ क्लिक करता, पढ़ता, अच्छा बहुत लगता, अधिकतर रुचिकर लेख मिलते, परंतु कहीँ-कहीँ पर मन बहुत मचल जाता और एक-आध टिप्पणी वगैरह चस्पा पर देता, और मस्त विचरण करता, ये पढ़, वो पढ़...। एक रुचिकर और अत्यधिक लोकप्रिय के चिठ्ठे को ही लें कई बार पढ़ा, पर टिप्पणी नहीं की। इस बात का खुलासा तो लेखक जो कि पूर्व परिचित भी थे, से मैंने लगभग एक वर्ष बाद ई-मेल से किया, वे तो वर्षों से सम्पर्क में ही नहीं थे।

अब दृश्य पटल पर मुलाकात होती है... अतुल, उन्मुक्त जी, शुकुल उर्फ फुरसतिया जी, सागर वगैरह...। बहुत उकसाया... सभ्य भाषा में, बोले तो... प्रोत्साहित किया... कभी अपने लेखों द्वारा, कभी अन्यान्य चिठ्ठोँ पर टिप्पणी, प्रति-टिप्पणी द्वारा, कभी ई-मेल द्वारा और कभी दूरभाष से (नाम नहीँ लूंगा, जिन्होंने उकसाया वे स्वयं जानते हैं।) यह भी बाद में मालूम हुआ कि कुछ परोक्ष में बैठे, बड़े दिनों से मुर्गा फंसने की प्रतीक्षा कर रहे थे। पर हम भी थे कि "ऐसे कौनो हमें फ़ंसाय सकत है?" की भावना से और न्यूटन के जड़त्व के सिद्धांत के अनुरूप अटल थे।

बचपन में एक किस्सा सुना था जो लगभग इस प्रकार है -
एक गाँव में एक ऐसा व्यक्ति आया जिसकी नाक कटी हुई थी। उस व्यक्ति को लोग उपेक्षा-दया मिश्रित आश्चर्य से देखते। उस व्यक्ति ने कुछ लोगों को समझा-बुझा कर बताया कि उसे भगवान के सक्षात दर्शन होते हैं। उन्होंने जब इसका रहस्य पूंछा तो उसने बताया कि नाक के कटवाने से भगवान के दर्शन और वह भी सह्ज-साधारण ही होते हैं, जब भी चाहो तब। यही नहीं, ऐसा करने से भगावान से सहज ही साक्षात्कार और वार्तालाप भी संभव है।

लोगों में बड़ा कौतूहल हुआ, नाक कटवाने की इच्छा भी हुई, पर त्वरित साहस न हुआ। कुछ समय बाद उनमें से एक युवक साहस जुटा कर उस व्यक्ति के पास आया और भगवान दर्शन तथा साक्षात्कार के लालच के चलते अपनी भी नाक कटवाने का मनोरथ बताया। खैर, उसकी नाक कटवाई गई। युवक ने पीड़ा को भी सहन किया। तदुपरांत नव-युवक ने कहा कि उसको तो भगवान नहीँ दिखाई दे रहे। तब उस प्रथम व्यक्ति ने उत्तर दिया "भगवान तो मुझको भी नहीँ दिखते, पर क्या करूँ, मुझको नाक वालों से ईर्ष्या होती थी तो मैंने यह कहना प्रारम्भ कर दिया। अब जाने दो इस बात को, तुम्हरी भी अब नाक कट गयी है, तुम भी आज से सभी से यही कहोगे कि तुमको भी भगवान दिखने लए हैं। फिर देखना... और लोग भी जुड़ने लगेंगे अपनी बिरादरी में।"
इस कथा से क्या शिक्षा मिलती है...? खैर, मैंने नहीं मानी इसकी भी शिक्षा...
(इस दृष्टांत को हाल ही में सम्मानित एक अन्य हिन्दी चिठ्ठे के विषय-संदर्भ से किंचित भी न जोडें, कदाचित विषय-वस्तु में समानता का आभास हो सकता है)

सर का मुँड़ना
जब शातिर बहेलिये जाल बिछायें, और जतन करें तो आप का फंसना स्वाभाविक ही है। बकरे की माँ आखिर कब तक खैर मनाती। ऊपर वाले ने बहेलियों की दुआ कुबूल की। मैंने पहली पोस्ट की - अपने मास्टर साहब पर, और... फंस गया जाल में! यह पोस्ट मात्र एक श्रद्धांजलि के रूप में थी, मेरी क़तई मंशा नहीं थी आगे और कुछ लिखने की। चिट्ठे का नाम जब सोचा तब कई तो मिले ही नहीँ, तब ऐसे नामों से समझौता किया कि जो कि वास्तव में कैज़ुअल मन: स्थिति को दर्शाता था कि यह सब टेम्परेरी (तदनुसार, अंतरिम) है, कोई शाश्वत प्रयास नहीँ। वैसे भी है तो सब कुछ अंतरिम ही!
यह पक्के तौर पर कह दिया था अपना उत्साहवर्धन करने वाले शुभाकांक्षियों से, "बस और नहीं...। मैं नहीँ कर सकता चिठ्ठाकारी वगैरह ।" अपने आप से भी घोषणा कर दी और समझा भी दिया "हो गयी मंशा पूरी, अब तो चुप बैठ जाओ...। "
मैं तो समझ ही गया, पर शुभाकांक्षी कहाँ मानने वाले थे। जब तक रोग पूरी तरह से जकड़ न ले। अभी भी मुर्गे में पुन: स्वतंत्र होने की कुछ सम्भावनायें दिख रही थीँ। कभी कहते - अगली पोस्ट का इंतज़ार है, तो किसी ने पूछा - कहाँ गायब हो गये? अब और नाम नहीँ लूंगा। कभी बात होती तो कोई सज्जन (मैं जानता हूं कि वे पढ़ेंगे इसे अवश्य ही) कहते "और लिखो भई... कुछ भी लिखो"। मैंने भी उनको हतोत्साहित किया - "अगर लिखा तो बिहारी-सतसई जैसे गागर में सागर लिये 9-2-11 की माफिक शॉर्टहैंड में कोशिश करूंगा", पर यह है इतना आसान थोड़े ही, जैसा कहने में लगता है।

"अब और क्या लिखूँ?" मैं सोचता। खैर विषाणुओं ने अपना असर दिखाया और कुछ ऐसा लगा कि "चलो, एक मुख़्तसर सी बात है वही लिख दी जाय...", सो एक बार और लिख दिया, कुछ सुगन्धित डाक-टिकटोँ पर और निश्चय कर लिया -
अब यदि लिखा भी... तो...तो... । नहीँ-नहीँ... ऐसी अनर्गल बात नहीँ सोचते कभी... और पूर्ण विराम।
ओले पड़ना
यहाँ तक तो ठीक-ठाक था, अचानक उन्मुक्त जी की कृपा-दृष्टि मुझ पर पड़ी... वे सोचने लगे... "आखिर नाम तो मेरा है उन्मुक्त, लिखता भी हूँ मैं उन्मुक्तता से, पर वास्तव में है यह प्राणी मौज में। एक-आध पोस्ट क्या लिख दी, इतिश्री समझ ली अपने कर्तव्यों की। बस कभी-कभार अपना अधिकार दिखाते हुए, टिप्पणी वगैरह कर देता है और कभी-कभी मीन-मेख निकाला करता है, और मजे में विचरण करता है। चलो पकड़ लो इसे"

अचानक, बिना किसी पूर्वाभास के, अपने ई-मेल में और अन्य एक शुभाकांक्षी द्वारा, उन्मुक्त जी के फरमान की सूचना मिली - जोर का झटका धीरे से लगे , जिसकी परिणति यह चिठ्ठी है।

उत्तर न मालूम होते तो ठीक ही था, पर कम-से-कम दो प्रश्नों के तो मालूम ही हैं, और शेष के भी विचारे जा सकते है, सो उत्तर तो देना होगा ही... नहीं तो... विक्रम और वेताल !
आज पुन: अपने से कहता हूँ "नहीँ माने बरखुरदार!... पड़ गये ब्लॉगिंग के ग्लैमर में... अब भुगतो खमियाजा!"
पुनश्च संकल्प: फिलहाल यही सोचा है कि उत्तर देना तो नितांत आवश्यक है, पर उसके बाद अब तो हम मान जायें... इसी में सबकी भलाई है। और वैसे भी - जब है नहीं ग़ज़ल कोई कहने को, तो क्या करें महफ़िल में जा कर

लेख न चाहते हुए भी, बड़ा हो गया है, अत: प्रश्नों के उत्तर और किनको टैग (नामित) करना है... बाद में...
(क्या बहाना ढूढा है, फिलहाल बचने का)

आगे आयें और बतायें कि कौन-कौन फंसना (अथवा नहीं फंसना) चाहता है। पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर वरीयता दी जायेगी। नामित करने का एकाधिकार लेखक के पास सुरक्षित है ।

अस्वीकरण (Disclaimer): कृपया इस चिठ्ठी में उल्लिखित व्यक्तियों के बारे में अन्यथा न लें, यह वर्णन मात्र परिहास-विनोद के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया है। सभी इंगित चिठ्ठाकार सम्मानित और लोकप्रियता के मापदण्ड पर अग्रगण्य हैं।

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2007

सुरभित सन्देश (ख़ुशबू तुम्हारे ख़त में.)...

सुरभि और सन्देश, ख़त और ख़ुशबू... ये कोई शायर की शायरी अथवा कवि की कविता नहीं है, अब ये पंक्तियाँ मात्र कल्पना न हो कर वास्तविकता हो सकती है, और इसका श्रेय जाता है भारतीय डाक-तार विभाग को।

कुछ माह पहले समाचार पढ़ा कि भारतीय डाक तार विभाग ने सुगन्धित डाक-टिकटोँ को जारी करने का निर्णय लिया है। कभी मैं भी, कई अन्य किशोर युवकोँ की तरह, डाक-टिकट और विशेष रूप से प्रथम दिवस आवरण संग्रह किया करता था और कभी सुगन्धि-विज्ञान में भी कुछ रुचि थी तो यह समाचार जानकर मेरी डाक-टिकट संग्रह की उत्कंठा पुन: जाग उठी और सोचा कि आखिर इस विशेष प्रकार के सुगन्धित टिकट को संग्रहीत किया जाय।

प्रथम प्रयास - चन्दन की सुगन्ध युक्त डाक-टिकट

Indian Postal Stamp with Sandalwood Fragrance
चन्दन की सुगन्ध युक्त डाक-टिकट
दिसम्बर 13, 2006 को भारतीय डाक तार विभाग ने चंदन की लकड़ी के मिश्रण से बने कागज़ पर (एक विभागीय अधिकारी के अनुसार) सुगन्धित स्मृति डाक टिकट जारी किया। इस टिकट की लगभग 8 लाख प्रतियाँ मुद्रित करी गयीँ। यह 15 रुपये मूल्य का एक टिकट है।

विवरणिका
यह टिकट भारत में जारी होने वाला पहला सुगन्धित डाक-टिकट था। सरकार द्वारा किया गया यह प्रयोग सफ़ल रहा। भारतीय डाक-टिकट संग्रहकर्त्ताओँ में इस डाक-टिकट को असाधारण रूप लोकप्रियता मिली और शीघ्र ही इसकी लगभग सभी प्रतियाँ बिक गयीँ। मैंने भी इस टिकट को संग्रहीत किया है। डाक विभाग की मानें तो इस टिकट में एक वर्ष तक यह सुगन्ध बनी रहेगी और कभी भी इस डाक-टिकट की मुद्रित सतह को हल्का सा रगड़ने पर इसमें से चंदन की सुगन्ध आयेगी। (फिलहाल मैंने तो इसे रगड़ा नहीं है और वास्तव में इससे चंदन की मादक सुगन्ध आती है)। इस टिकट पर चंदन की लकड़ी में नक्काशी गयी एक कलाकृति की छवि अंकित है और इसका शीर्षक है - चंदन (Sandalwood)| टिकट के साथ विस्तृत जानकारी के लिये विवरणिका और प्रथम दिवस आवरण भी जारी किया गया।

इसके पूर्व ऐसे सुगन्धित डाक-टिकट को जारी करने वाले मात्र कुछ ही देश थे - थाईलैण्ड, स्विट्ज़रलैण्ड और न्यूज़ीलैंड। इस टिकट के जारी होने के बाद भारत भी इन चुनिन्दा देशों की श्रेणी में आ गया है।

इसकी लोकप्रियता को देख कर भारतीय डाक तार विभाग बहुत प्रोत्साहित हुआ और यह भी समाचार मिला कि शीघ्र ही विभाग ऐसे अन्य सुगन्धित डाक-टिकटों को जारी करेगा। भारतीय डाक तार विभाग ने आज-कल के बाज़ार और ग्राहक की पसंद पहिचान ली थी। वैसे ही ई-मेल व कोरियर सेवाओं द्वारा छीने गये बाज़ार के अंश से पीड़ित डाक विभाग, व्यावसायिकता के इस दौर में लोकप्रियता और लाभ के अवसर को खोना नहीं चाहता था।

ग़ुलाबों की सुगन्ध युक्त डाक-टिकट
अब वसंत ऋतु का समय हो, वैलेंटाइन दिवस नज़दीक हो, तो इससे अच्छा प्रतीकात्मक अवसर और क्या हो सकता था। भारतीय डाक तार विभाग ने फरवरी 7, 2007 को ग़ुलाबों की सुगन्ध वाले डाक टिकटों का सेट जारी करने का समाचार दिया। इस अवसर को और भी लोकप्रिय बनाने के लिये डाक विभाग ने भारतीय फिल्म उद्योग का भी सहयोग लिया। खूबसूरत और लोकप्रिय फिल्म अभिनेत्री प्रीटी ज़िंटा को इस विशिष्ट टिकट के लोकार्पण के लिये चुना गया। आखिर प्रीति और मित्रता के प्रतीक फूलों का प्रतिनिधित्व करना था, वह भी कोई और नहीँ, फूलों में सर्वोपरि गुलाब का!
प्रथम दिवस आवरण

Indian postage stamp with rose fragrance
महक ग़ुलाबोँ की
मिनिएचर सेट
मैंने भी अपना संग्रह जारी रखते हुए इस विशिष्ट और ग़ुलाब की सुगन्ध वाले भारतीय डाक-टिकट को खरीदा। यह एक "मिनिएचर-सेट" के रूप में चार टिकटों का समूह है। इन चार टिकटों मे ग़ुलाब के फूलों की चार भिन्न प्रजातियोँ के चित्र, उनके नाम के साथ मुद्रित हैं। इन टिकटों की भी मांग अधिक रही और ये भी सीमित मात्रा में उपलब्ध थे। इनमें से प्रत्येक टिकट 8 लाख प्रतियों में मुद्रित किया गया है। इन टिकटों पर मुद्रित ग़ुलाब के फूलों की प्रजतियाँ हैं - भीम(रु.5), दिल्ली प्रिंसेस(रु.15), जवाहर(रु.15) और नीलम(रु.5)। इस स्मृति डाक टिकट के समूह का नाम है - महक ग़ुलाबोँ की (Fragrance of Roses)। इसके साथ भी जारी किये गये प्रथम दिवस आवरण और विवरणिका। और हाँ ये डाक-टिकट भी ग़ुलाब के फूलों की मनमोहक छवि के साथ-साथ ग़ुलाब की मधुर सुगन्ध से युक्त हैं।

तो अब यदि आप किसी परिजन अथवा विशिष्ट मित्र को प्रीति और मित्रता की भावनाओं और मधुर-मादक सुरभि के साथ अपने सन्देश को प्रेषित करना चाहते हैं तो भारतीय डाक विभाग के इन अनूठे टिकटों का प्रयोग कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त यदि आप डाक विभाग द्वारा कोई पत्र पाते हैं और उसमें चंदन अथवा फूलों की सुगन्ध हो तो आश्चर्य न करें, बस उसमें लगे टिकटों पर ज़रा ध्यान दें (यदि उसमें टिकट तब तक सुरक्षित लगे हों तो, अन्यथा स्वयं समझ लें कि मामला क्या है!)

(कदाचित डाक-टिकटों की छवि के प्रकाशन का सर्वाधिकार, कापीराईट एक्ट के अनुसार डाक-तार विभाग के पास सुरक्षित होता है, इस विवशता से यहाँ टिकटों की मूल आकार छवि को नहीँ प्रकाशित किया गया है।)

शुक्रवार, 12 जनवरी 2007

मास्टर साहब

J P Srivastava - Portrait
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, का कै लागूँ पाँय ।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो बताय ॥

श्रद्धेय स्व. श्री जागेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव जी को हम सम्मान एवं स्नेहपूर्वक "जे. पी. जी." अथवा "मास्टर साहब" कह कर सम्बोधित करते थे।

इस लेख के माध्यम से मुझे श्रद्धेय मास्टर साहब के बारे में अपने विचार एवं संस्मरण आदि व्यक्त करने का जो स्वर्णिम अवसर मिला है, उसे मैं अपना परम् सौभाग्य मानता हूँ और उन्हें श्रद्धांजलि देने का एक रूप समझता हूँ। यद्यपि मेरी लेखनी उनके बहुमुखी व्यक्तित्व का एक अंश भी समुचित रूप से व्यक्त करने में समर्थ नहीं है, तथापि मेरा यह प्रयास होगा कि मैं अपने विचारों के प्रकाशन द्वारा उसका यथासम्भव रेखांकन कर सकूँ।

विशेष
यहाँ पर मैं दो बातें स्पष्ट कर देना चाहता हूँ - पहली यह कि इस लेख में प्रयुक्त शब्द, विशेषण आदि भाषा को परिष्कृत एवं आलंकारिक बनाने के लिये कदापि नहीं हैं, अपितु इन्हें यथार्थ के प्रस्तुतीकरण और "मास्टर साहब" के व्यक्तित्व को लेखनीबद्ध करने का एक प्रयास ही माना जाय। इसका तात्पर्य यह कि कई विशेषण आदि श्रद्धेय मास्टर साहब के व्यक्तित्व-चित्रण के लिये ही चयनित हैं, न कि लेख की शैली के लिये - और कुछ स्थानों पर तो ये विशेषण भी यथार्थ को चित्रित करने में छोटे जान पड़ते हैं। (इस बात का सत्यापन वे सभी लोग कर सकते हैं, जो उनसे कभी भी मिले होंगे) । दूसरी बात यह कि इस लेख की किन्ही भी विशिष्टताओं, भाषा अथवा शैली आदि को मास्टर साहब के आशीर्वाद, उनके परिश्रम एवं उनके द्वारा दी गयी शिक्षा के सह्स्त्रांश का परिलक्षण ही माना जाय और त्रुटियों को मेरा अपना दोष समझा जाय। सम्पूर्ण लेख इन दोनों ही बिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जाय तो ही बेह्तर होगा।

प्रारम्भिक परिचय
J P Srivastava - Speechजब मेरा परिचय उनसे हुआ तब श्री जागेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव जी, कानपुर स्थित बी. एन. एस. डी. इंटर कॉलेज में हिन्दी विभाग में प्रवक्ता थे। श्रद्धेय मास्टर साहब से मेरा सम्बन्ध एक शिक्षक और शिष्य के रूप में प्रारम्भ हुआ। उस समय मैं अपनी किशोरावस्था में था और राम कृष्ण मिशन विद्यालय, कानपुर में कक्षा 9 का छात्र था। यह प्रारम्भिक सम्बन्ध कालांतर में और भी प्रभावी एवं प्रगाढ़ होता गया। शनै: - शनै: न केवल मेरा, अपितु हमारे सम्पूर्ण परिवार से उनका जुड़ाव बढ़ता गया और सभी सदस्य उनके सौम्य व्यक्तित्व और कर्मशीलता से प्रभावित हुये। एक शिक्षक से प्रारम्भ होकर उनका पद हमारे सम्पूर्ण परिवार के लिये एक मार्गदर्शक, विचारक, धर्मवेत्ता और सामाजिक कर्मयोगी के रूप में परिवर्तित हो गया। मेरा यह अटल विश्वास है कि मेरे अपने सम्पूर्ण शैक्षणिक एवं वैयक्तिक विकास और उप्लब्धियों में उनके शिक्षण और मार्गदर्शन का योगदान शत-प्रतिशत है। मेरे अपने विचार से उनसे हमारा यह सम्बन्ध आज उनके देहावसान के कई वर्ष उपरांत भी सूक्ष्म रूप में अपने अस्तित्व में है और आशा है कि उनके प्रेरक प्रसंग, बहुमुखी व्यक्तित्व, स्नेह और अशीर्वाद भविष्य में भी हम सभी का मार्ग-दर्शन करते रहेंगे।

शिक्षा किसी भी व्यक्ति के जीवन का महत्वपूर्ण अंग होती है। शिक्षा का तात्पर्य मात्र विद्यालय एवं पाठ्यक्रम नहीं होता, अपितु शिक्षा की परिधि बहुत व्यापक होती है उसमें किसी भी प्रकार का ज्ञानार्जन - न केवल पठन-पाठन, लेखन, मूलभूत गणितीय ज्ञान (three R's - Reading, wRiting and aRithmatic- See here and three R's ) अपितु अन्यान्य अध्ययन, सामाजिक, आर्थिक, दार्शनिक, व्यावहारिक और व्यावसायिक ज्ञान आदि समाहित होते हैं। एक आदर्श शिक्षक का व्यापक प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शिक्षा के इन सभी आयामों पर पड़ता है और इसके प्रत्यक्ष उदाहरण थे हमारे मास्टर साहब। जैसे वर्षा सम्पूर्ण भूमि को समान रूप से सिंचित करती है, परंतु भूमि के भिन्न भाग अपनी योग्यता एवं गुण के कारण भिन्न मात्रा में अवशोषित करते हैं, वैसे ही अपनी योग्यतानुसार मैं भी उनके शिक्षण से प्रभावित हुआ।

यह कहना कि वे एक शिक्षक मात्र थे, उनकी बहुमुखी प्रतिभा, योग्यता, कर्मठता और अन्यान्य गुणों को अनदेखा अथवा विस्मृत करना होगा।

जहाँ तक मेरा अपना प्रश्न है, उनके सहज, सरल किंतु अद्भुत् शिक्षण का प्रभाव प्रारम्भ से ही मेरी शैक्षणिक गतिविधियों पर पड़ने लगा। मैं एक विद्यार्थी के रूप में अनायास ही उनकी भाषा, ज्ञान, व्यवहार, सम्प्रेषणता और अध्यापन से लाभान्वित होता रहा। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि मेरे अपने किसी विशेष प्रयास के बिना ही मेरी शैक्षणिक गतिविधियों में उन्नति होती रही! यह किसी साधारण व्यक्ति का न होकर किसी गुणी शिक्षक की अद्भुत् शिक्षण शैली का ही प्रभाव हो सकता था। विद्यार्थी जीवन के उपरान्त भी उनका आचरण, उनके वक्तव्य, उपदेश एवं शिक्षा मुझे सदा ही प्रेरणा देती रही हैं। मैं इस सन्दर्भ में इतना ही कह सकता हूं कि मेरी लेखनी और शब्दावली अपनी सीमित क्षमता के कारण उनके शिक्षण के ही परिणाम स्वरूप अर्जित गुणों और उपलब्धियों को शब्दबद्ध करने में अक्षम है। हाँ एक बात अवश्य ही मुझे सालती है - आज हमारे बीच उनका न होना। उनके जैसे संत एवं कर्मयोगी शिक्षक की आज हमारे समाज को और विशेषत: हमारी किशोर (छात्र-वय) पीढ़ी को महती अवश्यकता है।

व्यापक अध्यापन प्रतिभा
जैसा कि मुझे ज्ञात है, अधिकारिक रूप से वे हिन्दी भाषा के अध्यापक थे परंतु स्वाध्याय, योग्यता एवं कर्मठता, जो कि प्रत्येक बुद्धिजीवी तथा मनीषी का मूलभूत स्वभाव है, के कारण उनकी अध्यापन क्षमता किसी एक शैक्षिक विषय तक सीमित नहीं थी। जिस प्रकार एक आदर्श छात्र कई विषयों में योग्यता रखता है उसी प्रकार उनकी अध्यापन क्षमता (जिसका आंशिक आँकलन भी मैं नहीं कर सकता) अन्यान्य विषयों में भी थी। जिस अधिकार से वे हिन्दी व्याकरण, सूर, कबीर, तुलसी, महादेवी वर्मा, प्रसाद, अज्ञेय एवं अन्य साहित्यकारों की रचनाओं की व्याख्या करते थे, उसी अधिकार से वे रेन एंड मर्टिन की अंग्रेज़ी व्याकरण, विलियम वर्ड्सवर्थ, कीट्स, शैली आदि रचनाकारों के साहित्य की विवेचना करते। यह ही नहीं, संस्कृत भाषा, व्याकरण और श्लोक आदि की व्याख्या, भावार्थ के पठन-पाठन, लेखन और सम्भाषण पर उनका सहज अधिकार था। अनेक अवसरों पर किसी एक साहित्य खण्ड की विवेचना के सन्दर्भ में या अपने भाषणों में अन्यान्य भाषाओं, विद्वानों और संस्कृतियों के समानांतर उदाहरण समझा कर वे उस की पुष्टि करते।

इतनी जानकारी तो उनके लगभग सभी परिचितों को होगी, परंतु यह कम ही लोग जानते थे और सम्भवत: लोगों को आश्चर्य भी होगा कि यही अधिकार उनका उन विषयों पर भी था जो साहित्य के इतर माने जाते हैं - जैसे कि गणित, बीजगणित, ज्यामिति। (यहाँ पर यह ध्यान रहे कि वे मूलत: हिन्दी के अध्यापक थे और गणित, ज्यामिति आदि विषय कदाचित उन्होंने कक्षा 10 तक ही पढ़े होंगे) बीजगणित और ज्यामिति के कठिन से कठिन प्रश्न वे चुटकियों में न केवल हल कर देते वरन उसे विस्तार से भी समझाते। उनकी इस विलक्षण अध्यापन क्षमता का मैं स्वयं लाभार्थी रहा हूँ। मात्र साहित्य के क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले ऐसे कितने व्यक्ति होंग़े जो लगभग 50 वर्ष की आयु में भी कक्षा 10 के विज्ञान-संकाय के गणित के ज़टिलतम प्रश्न भी चुटकियों में हल कर लेते हैं? और वह भी तब जब कि उनका कार्य-क्षेत्र व सामाजिक क्षेत्र विज्ञान अथवा गणित से सम्बद्ध न हो।

इस दृष्टांत को मैंने किसी विशेष प्रयोजन से प्रस्तुत किया है। उनकी इस क्षमता का आधार था उनका स्वाध्याय और अपने विद्यार्थी जीवन में सम्पूर्ण मनोयोग और गम्भीरता से किया गया अध्ययन जिसके फ़लस्वरूप अपने विद्यार्थी जीवन में अर्जित ज्ञान का लाभ वे जीवन-पर्यन्त अपने छात्रों में वितरित करते रहे। (यहाँ पर यह बताना उचित होगा कि अपने विद्यार्थी जीवन में वे एक अत्यंत मेधावी छात्र रहे थे। अति कठिन परिस्थितियोँ व लालटेन के प्रकाश में पढ़ कर भी वे राज्य की हाईस्कूल, इंटर व विश्वविद्यालय की परीक्षाओँ की वरीयता सूची में अग्रगण्य रहे) विद्यार्थियों के लिये उनका यह गुण कि सभी विषयों को महत्व दिया जाय, विशेष रूप से अनुकरणीय है। प्राय: विज्ञान-गणित के विद्यार्थी साहित्य विषयों को और साहित्य आदि के विद्यार्थी विज्ञान-गणित विषयों को भार के रूप में ग्रहण करते हैं और व्यवसायोन्मुख शिक्षा पद्धति के चलते इतर विषयों का मनोयोग से अध्ययन नहीं करते। श्रद्धेय मास्टर साहब के ऐसे गुणों के अनुसरण से विद्यार्थियों को अवश्य ही लाभ होगा, ऐसा मेरा मानना है।

विशिष्ट, शिक्षा शैली
श्रद्धेय मास्टर साहब की अध्यापन शैली का एक और गुण जो कि शिक्षकों और अभिवावकों के लिये विशेष अनुकरणीय है, वह है - क्रोध न करना। अपनी जानकारी में मैंने उन्हें कभी क्रोधित अथवा छात्रों के साथ आवेश में व्यवहार करते नहीं देखा। इस सम्बन्ध में मैं एक घटना का उल्लेख करूंगा।

परीक्षा के दिनों में हम 3-4 विद्यार्थी उनसे किसी पाठ विशेष की व्याख्या समझ रहे थे। अनायास किसी घटना - सम्भवत: टेपरिकॉर्डर की ध्वनि के कारण एक छात्र को हँसी आ गयी और उस हँसी ने क्षण भर में ही हम सभी को प्रभावित कर दिया। अब क्या था! हम सभी मुँह छिपाकर उस हँसी को रोकने का निरर्थक प्रयास करने लगे। हमारी स्थिति को भाँप कर मास्टर साहब एकाएक चुप हो गये। ऐसी स्थिति मे किसी भी अध्यापक का क्रोधित होना स्वाभाविक ही है। हम सभी समझ गये कि वे रुष्ट हो गये हैं और अब हमें अवश्य ही उनके कोप का भाजन बनना पड़ेगा। परंतु यह क्या? उनके मुख पर कोई भी क्रोध, आवेश या तनाव नहीँ, अपितु वही शांत भाव। वे बोले - "पहिले आप लोग जी भर कर हँस लें, उसके उपरान्त हम पुन: पढ़ाई प्रारम्भ करेंगे।" हम सबको जैसे साँप सूँघ गया। कुछ ही पल में हँसी स्वत: ही शांत हो गयी। कोई क्रोध, आवेश, डाँट नहीं, एक अध्यापक का सौम्य निर्देश और हम में भी कोई मानसिक तनाव नहीँ। पुन: वही एकाग्रता और मनोयोग से पढ़ाई प्रारम्भ।

उपरोक्त छोटी सी घटना मास्टर साहब के शांत और सौम्य व्यवहार को परिलक्षित करती है। ऐसी स्थिति में न केवल अध्यापक अपितु किसी अभिवावक की भी क्रोधपूर्ण प्रतिक्रिया स्वाभाविक है, जिससे कि कोई सार्थक परिणाम नहीँ निकलता है। मैंने स्वयं अपने अध्यापन काल में एक-दो बार छात्रों को अन्यमनस्क होने के कारण कक्षा से बाहर किया है। ऐसी स्थिति में भी शांत रह कर मास्टर साहब ने जो प्रतिक्रिया दिखाई उसका हम सभी पर चमत्कारिक प्रभाव पड़ा और उनके प्रति हमारी श्रद्धा तथा मनोयोग से पढ़ने की भावना और भी बलवती हो गयी।

इस घटना के अतिरिक्त भी, प्रतिदिन के अध्यापन, व्यवहार आदि में भी उनका शांत स्वभाव परिलक्षित होता था। प्राय: सभी अध्यापक कुछ गृह-कार्य छात्रों को देते हैं जिसका प्रयोजन छात्रों की प्रगति का आँकलन और तदनुसार उचित मार्गदर्शन होता है। कई अवसरों पर छात्र गृह-कार्य नहीं करते अथवा अपूर्ण करते हैं। ऐसी स्थिति में भी मास्टर साहब का व्यवहार सदा की भाँति शांत होता था। छात्रों की ऐसी लापरवाही पर वे उसे कोई प्रचलित दण्ड नहीँ देते, न ही वे उसे डाँटते, परंतु वे इस की अवहेलना भी नहीँ करते। अपना उत्तरदायित्व मानते हुये वे उसे समझाते और अपने सामने बिठा कर, अपना अतिरिक्त समय देते हुये अपूर्ण कार्य को अवश्य ही पूर्ण कराते। उनके इस व्यवहार से छात्र को स्वयं ही अपनी ग़लती का आभास होता और ऐसी घटना की पुनरावृत्ति कम ही होती और अन्य छात्र भी अपने कार्य को भविष्य में पूर्ण गम्भीरता से करते। यद्यपि इस प्रयास में मास्टर साहब का अमूल्य समय नष्ट होता, परंतु यह समय छात्र को अध्ययन के प्रति गम्भीर बनाने में एक सार्थक प्रयत्न सिद्ध होता। (मै स्वयं भी इस प्रकार के दण्ड का भागी रहा हूँ) ऐसा अनूठा एवं सकारात्मक तरीक़ा था उनके दण्ड देने का!

सम्पूर्ण मार्गदर्शक
श्रद्धेय मास्टर साहब विद्यार्थियों के लिये मात्र एक अध्यापक न हो कर, एक सम्पूर्ण शिक्षक व मार्गदर्शक थे। पठन-पाठन तो मात्र एक माध्यम था और वे अपने सम्पर्क में आने वाले छात्रों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व-विकास का प्रयास करते थे। चाहे वह सदाचार की शिक्षा हो, सामाजिक चेतना, राष्ट्र एवं मातृ-भाषा के प्रति प्रेम, उत्तरदायित्व के विचार, दर्शन-चिंतन की क्षमता का सदुपयोग, आशावादी दृष्टिकोण या कि फिर कर्तव्यपरायणता का पाठ। अध्यापन एवं पठन-पाठन के बीच, वाद-विवाद, समाचार-पत्रों में लेखन, सामाजिक भाषण आदि अन्यान्य माध्यमों के द्वारा दृष्टांतों, पौराणिक कथाओं, सामयिक घटनाओं की मीमांसा, साहित्यकारों के उद्धरण से विद्यार्थियों के उपरोक्त गुणों का विकास उनकी कार्य-शैली में सहज रूप से समाहित था। मास्टर साहब का अटल विश्वास था कि गुणी और निर्भीक विद्यार्थी ही समाज एवं राष्ट्र के उत्थान का आधार है और उनका समग्र व्यक्तित्व-विकास देश सेवा का सार्थक प्रयास है।

अतुलनीय स्नेह और सम्मान
अपने ज्ञान, गम्भीर एवं शांत स्वभाव, उत्तरदायित्वों का सम्यक् निर्वहन, छात्रों से असीम स्नेह, उनके व्यक्तित्व-विकास के सतत प्रयास और अन्य छात्र प्रिय गुणों के कारण वे छात्रों में सदा ही श्रद्धा, स्नेह एवं अतुलनीय सम्मान की दृष्टि से देखे जाते थे और यह सम्मान कि अपवाद स्वरूप ही सही, एक भी छात्र ऐसा मेरी जानकारी में आज तक नहीं मिला जो कि उन्हें परम आदर की दृष्टि से न देखता हो, बिरले ही शिक्षकों को प्राप्त होता है।

अगाध छात्र-प्रेम
उनके शिक्षक जीवन की एक नहीँ कई घटनायें छात्रों का उनके प्रति सम्मान और उनका छात्रों के प्रति अगाध स्नेह प्रकट करती हैं। ऐसी एक प्रमुख घटना के अनुसार मास्टर साहब ने अपने कार्य-जीवन के स्वर्णिम काल-खण्ड में, अन्य उच्चतर महाविद्यालय में उच्चतर वेतनमान पर हुई अपनी नियुक्ति को छात्रों के अनुग्रह और उनके विद्यालय छोड़ने का विरोध करने के कारण ही त्याग दिया। मात्र छात्रों के स्नेह से बंध कर उच्चतर सेवा को त्यागना और तात्कालिक विद्यालय और उसी पद पर रहना सहर्ष स्वीकार किया और उसी विद्यालय में ही सेवा-काल पूर्ण किया। छात्रों का ऐसा स्नेह, सम्मान और शिक्षक के ऐसे त्याग का उदाहरण अन्यत्र कहाँ !
( यह मेरे अपने काल-खण्ड की घटना नहीं अपितु उससे भी कई वर्ष पूर्व की है, और इसके साक्षी, जो उस समय उनके विद्यार्थी थे, आज अपने देश के ही एक प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय उद्योग समूह के स्वामी हैं)
विस्तार से इस घटना और अन्य प्रसंगों का विवरण फिर कभी।

यद्यपि कालांतर में सरकार द्वारा उन्हें सम्मान, प्रशस्ति-पत्र आदि भी प्रदान किये गये, किंतु मेरे विचार से सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार - छात्रों का स्नेह और सम्मान, जिसके सामने शासकीय पुरस्कार नगण्य हैं, उसे वे सदा ही अर्जित करते रहे। न केवल अपने ही विद्यालय के छात्र, अपितु उनके सहकर्मी शिक्षक, शिक्षणेतर कर्मचारी, अधिकारीगण, अन्य विद्यालयों के छात्र, शिक्षक, बुद्धिजीवी, सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्त्ता, जो भी उनके सम्पर्क में रहे, वे सभी उनको श्रद्धा व सम्मान की दृष्टि से देखते।

बहुआयामी और सम्पूर्ण व्यक्तित्व
J P Srivastava - at homeश्रद्धेय मास्टर साहब न केवल एक आदर्श शिक्षक थे, अपितु, एक महान और अनुकरणीय व्यक्तित्व। उनका कार्य-क्षेत्र, शिक्षा के अतिरिक्त राजनीति, सामाजिक कार्य, धर्म और आध्यात्म तक विस्तृत था। इन समी क्षेत्रों में उनका सकारात्मक और सार्थक योगदान था। राजनीति के क्षेत्र में संघ की विचारधारा का उन पर विशेष प्रभाव था। वे संघ के एक अति-कर्मठशील सदस्यों में गिने जाते थे। यहाँ तक कि, संघ के शीर्ष सदस्यों और उससे जुड़े देश के दिग्गज राजनीतिज्ञों में भी उन्हें आदर पूर्वक देखा जाता था। ऐसे जुड़ाव के बाद भी, वे कलुषित और स्वार्थपरक राजनीति से सर्वथा अछूते थे। श्रीमद् भगवदगीता के उपदेश के अनुसार उन्होंने किसी प्रकार के पद, लाभ आदि की कभी अपेक्षा नहीँ की और राजनीति के दुर्गुणों से अप्रभावित रह कर सदा समाज एवं राष्ट्र-हित में कार्य किया। कालांतर में देश में फैली कलुषित राजनीति से उनका हृदय क्षुब्ध हुआ और वे राजनीति से परे हो कर धर्म एवं आध्यात्म के मार्ग पर चलते हुए सम्पूर्ण आस्था, कर्मठता व नि:स्वार्थ भाव से शिक्षण और धार्मिक व सामाजिक कार्यों को करते रहे।

महापुरुषों के जीवन-दर्शन एवं मूल्य - जैसे कि गाँधी का सत्य-प्रेम, स्वामी विवेकानन्द की कर्मशीलता, राष्ट्र-उत्थान की भावना, मार्क्स का सामाजिक चिंतन, राजर्षि पुरुषोत्तम का राष्ट्र-भाषा प्रेम, महर्षि दधीचि का त्याग भाव, गीता के सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक दर्शन - इन सभी विचारों का प्रभाव उनके जीवन और कर्म-शैली पर स्पष्ट परिलक्षित होता था।

श्रद्धेय मास्टर साहब एक कुशल व प्रभावी वक्ता और लेखक थे। हिन्दी, अंग्रेज़ी व संस्कृत भाषाओं पर उनका अधिकार, अपने गहन चिंतन और स्वाध्याय के कारण उनके भाषण व लेख (शैक्षिक, सामाजिक, राजनीतिक, एवं धार्मिक) ओजस्वी और प्रभावशाली होते थे। सम-सामयिक विषयों, सामाजिक विडम्बनाओं के सन्दर्भ में उनके स्पष्टवादी और परिष्कृत लेख और पत्र आदि समाचार पत्रों में भी प्रकाशित होते।

अति साधारण जीवन शैली
अनेकानेक सदगुणों और प्रतिभा से सम्पन्न होते हुए भी उनके व्यवहार में किंचित मात्र भी अहंकार नहीं था। जीवन-पर्यन्त उन्होंने साधारण, आडम्बर-रहित एवं सरल जीवन-शैली का निर्वहन किया। उदाहरणत: वे कोई अति-धनवान व्यक्ति तो नहीँ थे, परंतु, फिर भी आर्थिक क्षमता होते हुए और मोटर-वाहनों के प्रचलित युग में भी साईकिल उनका प्रिय वाहन था। समय-सारिणी व नियम के वे अति पाबंद थे। छोटों के प्रति अपार स्नेह और सभी बड़ों के प्रति सम्मान एवं श्रद्धा उनका सहज स्वभाव था।

विशिष्ट प्रतिभाओं, सदगुणों, सद्व्यवदहार, सदाचार, निर्मल व सरल व्यक्तित्व और इससे ऊपर निरंतर, निश्छल, नि:स्वार्थ कर्मशीलता - ऐसे गुणों का अतुलनीय और सजीव संगम थे श्रद्धेय मास्टर साहब। ऐसे अनुकरणीय व्यक्तित्व और महान शिक्षक किसी भी युग में बिरले ही होते होंगे। यह मेरा सौभाग्य ही है कि विद्यार्थी जीवन व उसके उपरांत भी उनके सान्निध्य एवं आशीर्वाद से मैं सदैव ही लाभान्वित हुआ।

श्रद्धेय मास्टर साहब अपने कृतित्व व उपलब्धियों के माध्यम से सूक्ष्म रूप में आज भी विद्यमान हैं, परंतु उनका देहावसान निश्चित रूप से न केवल मेरे लिये, वरन समाज, शिक्षा-जगत, एवं देश के लिये एक अपूरणीय क्षति थी। उनके न रहने से शिक्षक-जगत में जो शून्य उत्पन्न हुआ था, उसकी पूर्ति मुझे भविष्य में भी असंभव जान पड़ती है। इस संदर्भ में मुझे स्व. पं. नेहरू द्वारा राष्ट्रपिता के निधन पर कहा गया वाक्यांश सम्यक जान पड़ता है -

“The light has gone out of our lives and there is darkness everywhere” - Jawahar Lal Nehru
(हमारे बीच से प्रकाश चला गया है और हर जगह अन्धकार है)

यदि हम सब और विशेष रूप से शिक्षक-जगत, विद्यार्थी, अभिवावक और राजनीतिज्ञ उनके सदगुणों से शिक्षा ले कर उसका एक अंश भी व्यवहार में लायें तो समाज, छात्र-जगत और देश का निश्चय ही उत्थान होगा और यही हम सबकी उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।