शनिवार, 28 अप्रैल 2007

कम्प्यूटर व्यवसाय में अधिक आय - मेरे विचार

हाल ही में मिर्ची सेठ जी के चिट्ठे पर एक आलेख पढ़ा, ये कम्पयूटर वालों को इतने पैसे क्यों मिलते हैं?

एक बात की क्षमा चाहता हूँ, कि मैं टिप्पणी के स्थान पर अपने आलेख के माध्यम से अपने विचार रख रहा हूँ। यह कोई प्रत्युत्तर के रूप में नहीं है, कुछ संबंधित विचार हैं, कहीं विरोध भी। यहाँ सिर्फ इसलिये कि टिप्पणी अधिक बड़ी हो जाती, और कदाचित इसमें बाद में भी कुछ और भी लिखना हो तो इस कारण से इसे आलेख के रूप में कहना बेहतर लगा।

मैं भी इसी संगणक / अंतरजाल के व्यवसाय से संबद्ध हूँ, पर मेरा विचार आंशिक रूप से भिन्न है। इस विषय पर मेरे बहुत से विचार है, मैं सब तो नहीँ कह (टंकित कर) सकता पर दो बातें अवश्य -

1.) अधिक पैसे की बात सिर्फ दो या तीन मूल कारणों से है पहला सीधा सा अर्थशास्त्र का नियम कि माँग और आपूर्ति का अंतर। चूंकि यह अपेक्षाकृत नयी तकनीक है - मेरे विचार से अभी भी शैशव / बाल्य -काल में है, यदि आप सदियों पुराने विषयों, जैसे कि गणित, अर्थशास्त्र, रसायन शास्त्र, रासायनिक, यांत्रिक-अभियांत्रिकी से तुलना करें जो कि शताब्दियों से जानी जा रही हैं। संगणक तकनीक अभी कुछ ही दशकों से व्यवहार में आयी है तो सामान्य प्रयोक्ता इसके उपयोग / जटिलताओं के बारे में कम जानते हैं और इसका व्यावहरिक / व्यावसायिक प्रयोग बहुतायत में होने लगा है, तकनीक अपेक्षाकृत सुलभ है। मैं तो तब इससे जुड़ गया था जब इस तकनीक का प्रयोग मात्र शोध के लिये व मात्र उच्च स्तरीय अभियांत्रिकी / वैज्ञानिक संस्थानों में होता था। आज इसके जानने वालों की माँग अपेक्षाकृत अधिक है, आपूर्ति में तो बढोत्तरी तो काफी बाद में होना आरम्भ हुई (जब इसकी शिक्षा में भी सफल व्यवसाय दिखने लगा ;) तो माँग और आपूर्ति का पुराना सिद्धांत ही मूल कारण है इस व्यवसाय में अधिक आय का। शायद जब हवाई जहाज नये बने होंगे तो उसमें निष्णात कर्मचारियों का भी यही हाल रहा हो, बस अंतर यह कि उसका अनुप्रयोग इतना व्यापक नहीं रहा होगा जितना कम्प्यूटर का, सो माँग भी बहुत ज़्यादा न रही हो। अन्य कारणों की चर्चा फिर कभी, या नहीँ भी।


2.) दूसरी बात जो मिर्ची सेठ ने नवोत्पाद की कही, वह पूर्णत: सत्य नहीँ कही जा सकती, मैं इसे केवल आंशिक रूप में ही मानता हूँ। इस व्यवसाय में लगे अधिकतर लोग नव-सृजनात्मकता में नहीं लगे, वे मात्र किसी विकसित तकनीक पर अनुप्रयोग (Applications) बनाते हैं, या इन्हें संश्लेषित (Synthesis or Integrate) करते हैं, या फिर उनका संरक्षण (Maintenance) करते हैं... आदि । मात्र भिन्न प्रकार के प्रोग्राम लिखना, या भिन्न तकनीक पर काम करना सृजन नहीँ माना जा सकता। यह अवश्य है कि अपेक्षाकृत अधिक बदलाव और विकास है इस क्षेत्र में पर मूल-सृजन में लगे लोगों का अनुपात, कुल कर्मियों की अपेक्षा कम ही है, मूल-सृजन से मेरा अर्थ मूल-शोध और विकास से है। सामान्यत: इसमें लगे अधिकतर लोग अन्य व्यवसायों की भांति ही लगभग पूर्व-सृजित तकनीक पर कार्य करते हैं जिनमें प्रोग्रामर, Lead Developer, Analyst, Network Admin, DB Admin वगैरह हैं।

एक और बात यह कि अन्य व्यवसायों में नव-सृजनात्मकता कम होती है, ठीक नहीं। संगणक से सम्बद्ध क्षेत्र मेरा भी आय का स्रोत है पर दूसरे क्षेत्रों के योगदान को मैं सृजनात्मकता से विहीन नहीं मानता। अब मूल-भौतिक विज्ञान, या फिर धातु-कर्म (Metallurgy) को ही लें, यदि भौतिकी या धातुकर्म या फिर रसायन-विज्ञान, यही तो मूलभूत आधार है Silicon Chip के और उसमें अति-लघु स्तर पर निर्माण और उत्पादन के। यह बात अवश्य है कि इनका अनुप्रयोग इतना व्यापक नहीं जितना इन सिद्धांतों पर बने उत्पादों का! सो यदि इनमें नव-सृजन और मूलभूत शोध न होता तो इतने व्यापक स्तर पर संगणकों का प्रयोग ही न हो पाता और इनके कर्मियों की माँग भी कम रहती।

यही नहीं, मेरा तो मानना है, कि मूल-सृजन की संभावना तो हर क्षेत्र में हर समय रहती हैं, रहेंगी। कतई अलग विचारों में, मेरी अपनी सोच है कि बिलकुल सामान्य क्षेत्र जैसे कि काष्ठ-कर्म (बढ़ई का काम) या फिर ऐसे ही अन्य व्यवसाय जैसे कि वस्त्र-निर्माण कला इन सभी में सृजनात्मकता की संभावना सदा ही बनी रहती है और उच्च स्तरीय कर्मी उसमें भी अधिक आय अर्जित करते हैं, कर सकते हैं। शर्त यह कि वास्तव में मूल-सृजन हो, गुणवत्ता हो और उपयोगिता भी हो तो और अच्छा। अब क्या हम यह नहीं जानते कि कितने ही वस्त्र-विन्यासकार (Fashion Designer) या आंतरिक सज्जा विशेषज्ञ(Interior Designer) अनेक कम्प्यूटर वालों से अधिक अर्जन करते होंगे। बस अंतर यह कि उनकी संख्या सीमित है, क्योंकि इतने विशिष्ट उत्पादों व सेवाओं की मांग कम्प्यूटर की अपेक्षा कम ही है। क्या खान-पान, मदिरा व श्रंगार में प्रयुक्त सुगन्धि उत्पादों के विकास में कम आय है? यह भी एक अति-विशिष्ट, दीर्घ-कालिक अनुभव पर आधारित उद्योग है और इसके मूल विकास में लगे प्रति व्यक्ति की आय कहीं अधिक होती है, बस फर्क वही कि इनकी सीमित संख्या ही पर्याप्त है, अनेकानेक उपभोक्ताओं को आपूर्ति करने में, सो मांग कम ही है।

तकनीक को और भी सरल और सुलभ होने दें अवश्य ही यह अंतर कम होगा। यदि नहीं हो सका, तब भी होगा ? कैसे? बड़ी सरल बात है - यदि कम्प्यूटर कर्मियों की आपूर्ति बढ़ती रही (सो होगा ही, जब तक मांग है) और अन्य क्षेत्रों की कम हुई तो कभी तो स्थिति विपरीत होगी। कभी तो उत्पादन में या अन्य क्षेत्रों में निष्णात लोगों की कमी होगी उद्योगों को। तब.. ? तब स्थिति पलट होगी ही।

तो मैं तो यही मानता हूँ, कि यदि अर्थशास्त्र के सिद्धांत को व्यापक रूप में समझा जाय तो यही कारण मांग / आपूर्ति का अंतर समझ में आयेगा।

अब बहुत हो गया। इससे अधिक लिख पाने की न आवश्यकता है, न ही हिम्मत। फिर भी यदि और मूलभूत कारण हों, तो मैं भी उत्सुक हूँ जानने का, समझने का।

शनिवार, 21 अप्रैल 2007

तमसो मा ज्योतिर्गमय

फिर बिजली गुल!

आजकल तो गर्मियों का मौसम है, जब हमारे शहर और प्रदेश में साल के बाकी महीनों में बिजली की किल्लत हो तो गर्मियों में तो भगवान ही मालिक है। अब तो सुनते हैं कि और प्रदेशों व शहरों में भी बिजली की बहुत मारा-मारी है, खैर इस मामले में तो कानपुर के शहरी तो बहुत तजुर्बेकार है, औरों को अभी इस तजुरबे में शायद वक्त लगे।

कहाँ पड़ गये हम भी घिसी-पिटी, पुरानी बकवास को ले कर। अब चालू ही करी है तो इससे मिलता हुआ एक किस्सा ही हो जाये।

पिछले दिनों हम एक कार्यक्रम में शरीक हुए। वहाँ पर कुछ सामयिक व अन्यान्य विषयों पर चर्चा भी हुयी। एक सज्जन ने एक हास्य घटना सुनायी

एक माँ ने अपने पुत्र से, जो कि कक्षा 10 का छात्र था, एक प्रश्न किया -
"तमसो मा ज्योतिर्गमय... संस्कृत के इस सद् वाक्य का अर्थ बता सकते हो।"

रात का समय था, संयोग से बिजली भी चली गयी और अंधेरा छा गया

पुत्र बोला - "हाँ, क्यों नहीं माँ, बहुत आसान है, इसका अर्थ है कि -
माँ, तुम सो जाओ, (तमसो मा) बिजली चली गयी है (ज्योतिर्गमय) "

माता ने झल्ला कर कहा, "तुझे कुछ नहीँ मालूम, कल ठीक से पढ़ कर बताना"

अगले दिन दोपहर का समय था -

माँ - "क्यों बेटा, अब पढ़ लिया, अब तो बताओ कि तमसो मा ज्योतिर्गमय का क्या अर्थ है"

पुत्र - "हाँ, कल कुछ ग़लती हो गयी थी, इसका अर्थ है -

माँ, तुम सो जाओ (तमसो मा), मैं ज्योति के साथ जा रहा हूँ (ज्योतिर्गमय) "

इस घटना मैंने अपने एक मित्र को भी बताया, अभी उसके वास्तविक अर्थ पर बात नहीं हुयी थी। वहाँ पर उन मित्र का पुत्र भी मौजूद था, जब उससे भी यह प्रश्न किया गया, तो वह तपाक से बोला -

"इस स्लोगन को कहीँ देखा है, - हो न हो, यह भैया के स्कूल का ही स्लोगन है!"

अब देखते हैं कि देश के अन्य भावी कर्णधारों का क्या मत है इस विषय पर।