शुक्रवार, 12 जनवरी 2007

मास्टर साहब

J P Srivastava - Portrait
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, का कै लागूँ पाँय ।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो बताय ॥

श्रद्धेय स्व. श्री जागेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव जी को हम सम्मान एवं स्नेहपूर्वक "जे. पी. जी." अथवा "मास्टर साहब" कह कर सम्बोधित करते थे।

इस लेख के माध्यम से मुझे श्रद्धेय मास्टर साहब के बारे में अपने विचार एवं संस्मरण आदि व्यक्त करने का जो स्वर्णिम अवसर मिला है, उसे मैं अपना परम् सौभाग्य मानता हूँ और उन्हें श्रद्धांजलि देने का एक रूप समझता हूँ। यद्यपि मेरी लेखनी उनके बहुमुखी व्यक्तित्व का एक अंश भी समुचित रूप से व्यक्त करने में समर्थ नहीं है, तथापि मेरा यह प्रयास होगा कि मैं अपने विचारों के प्रकाशन द्वारा उसका यथासम्भव रेखांकन कर सकूँ।

विशेष
यहाँ पर मैं दो बातें स्पष्ट कर देना चाहता हूँ - पहली यह कि इस लेख में प्रयुक्त शब्द, विशेषण आदि भाषा को परिष्कृत एवं आलंकारिक बनाने के लिये कदापि नहीं हैं, अपितु इन्हें यथार्थ के प्रस्तुतीकरण और "मास्टर साहब" के व्यक्तित्व को लेखनीबद्ध करने का एक प्रयास ही माना जाय। इसका तात्पर्य यह कि कई विशेषण आदि श्रद्धेय मास्टर साहब के व्यक्तित्व-चित्रण के लिये ही चयनित हैं, न कि लेख की शैली के लिये - और कुछ स्थानों पर तो ये विशेषण भी यथार्थ को चित्रित करने में छोटे जान पड़ते हैं। (इस बात का सत्यापन वे सभी लोग कर सकते हैं, जो उनसे कभी भी मिले होंगे) । दूसरी बात यह कि इस लेख की किन्ही भी विशिष्टताओं, भाषा अथवा शैली आदि को मास्टर साहब के आशीर्वाद, उनके परिश्रम एवं उनके द्वारा दी गयी शिक्षा के सह्स्त्रांश का परिलक्षण ही माना जाय और त्रुटियों को मेरा अपना दोष समझा जाय। सम्पूर्ण लेख इन दोनों ही बिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जाय तो ही बेह्तर होगा।

प्रारम्भिक परिचय
J P Srivastava - Speechजब मेरा परिचय उनसे हुआ तब श्री जागेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव जी, कानपुर स्थित बी. एन. एस. डी. इंटर कॉलेज में हिन्दी विभाग में प्रवक्ता थे। श्रद्धेय मास्टर साहब से मेरा सम्बन्ध एक शिक्षक और शिष्य के रूप में प्रारम्भ हुआ। उस समय मैं अपनी किशोरावस्था में था और राम कृष्ण मिशन विद्यालय, कानपुर में कक्षा 9 का छात्र था। यह प्रारम्भिक सम्बन्ध कालांतर में और भी प्रभावी एवं प्रगाढ़ होता गया। शनै: - शनै: न केवल मेरा, अपितु हमारे सम्पूर्ण परिवार से उनका जुड़ाव बढ़ता गया और सभी सदस्य उनके सौम्य व्यक्तित्व और कर्मशीलता से प्रभावित हुये। एक शिक्षक से प्रारम्भ होकर उनका पद हमारे सम्पूर्ण परिवार के लिये एक मार्गदर्शक, विचारक, धर्मवेत्ता और सामाजिक कर्मयोगी के रूप में परिवर्तित हो गया। मेरा यह अटल विश्वास है कि मेरे अपने सम्पूर्ण शैक्षणिक एवं वैयक्तिक विकास और उप्लब्धियों में उनके शिक्षण और मार्गदर्शन का योगदान शत-प्रतिशत है। मेरे अपने विचार से उनसे हमारा यह सम्बन्ध आज उनके देहावसान के कई वर्ष उपरांत भी सूक्ष्म रूप में अपने अस्तित्व में है और आशा है कि उनके प्रेरक प्रसंग, बहुमुखी व्यक्तित्व, स्नेह और अशीर्वाद भविष्य में भी हम सभी का मार्ग-दर्शन करते रहेंगे।

शिक्षा किसी भी व्यक्ति के जीवन का महत्वपूर्ण अंग होती है। शिक्षा का तात्पर्य मात्र विद्यालय एवं पाठ्यक्रम नहीं होता, अपितु शिक्षा की परिधि बहुत व्यापक होती है उसमें किसी भी प्रकार का ज्ञानार्जन - न केवल पठन-पाठन, लेखन, मूलभूत गणितीय ज्ञान (three R's - Reading, wRiting and aRithmatic- See here and three R's ) अपितु अन्यान्य अध्ययन, सामाजिक, आर्थिक, दार्शनिक, व्यावहारिक और व्यावसायिक ज्ञान आदि समाहित होते हैं। एक आदर्श शिक्षक का व्यापक प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शिक्षा के इन सभी आयामों पर पड़ता है और इसके प्रत्यक्ष उदाहरण थे हमारे मास्टर साहब। जैसे वर्षा सम्पूर्ण भूमि को समान रूप से सिंचित करती है, परंतु भूमि के भिन्न भाग अपनी योग्यता एवं गुण के कारण भिन्न मात्रा में अवशोषित करते हैं, वैसे ही अपनी योग्यतानुसार मैं भी उनके शिक्षण से प्रभावित हुआ।

यह कहना कि वे एक शिक्षक मात्र थे, उनकी बहुमुखी प्रतिभा, योग्यता, कर्मठता और अन्यान्य गुणों को अनदेखा अथवा विस्मृत करना होगा।

जहाँ तक मेरा अपना प्रश्न है, उनके सहज, सरल किंतु अद्भुत् शिक्षण का प्रभाव प्रारम्भ से ही मेरी शैक्षणिक गतिविधियों पर पड़ने लगा। मैं एक विद्यार्थी के रूप में अनायास ही उनकी भाषा, ज्ञान, व्यवहार, सम्प्रेषणता और अध्यापन से लाभान्वित होता रहा। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि मेरे अपने किसी विशेष प्रयास के बिना ही मेरी शैक्षणिक गतिविधियों में उन्नति होती रही! यह किसी साधारण व्यक्ति का न होकर किसी गुणी शिक्षक की अद्भुत् शिक्षण शैली का ही प्रभाव हो सकता था। विद्यार्थी जीवन के उपरान्त भी उनका आचरण, उनके वक्तव्य, उपदेश एवं शिक्षा मुझे सदा ही प्रेरणा देती रही हैं। मैं इस सन्दर्भ में इतना ही कह सकता हूं कि मेरी लेखनी और शब्दावली अपनी सीमित क्षमता के कारण उनके शिक्षण के ही परिणाम स्वरूप अर्जित गुणों और उपलब्धियों को शब्दबद्ध करने में अक्षम है। हाँ एक बात अवश्य ही मुझे सालती है - आज हमारे बीच उनका न होना। उनके जैसे संत एवं कर्मयोगी शिक्षक की आज हमारे समाज को और विशेषत: हमारी किशोर (छात्र-वय) पीढ़ी को महती अवश्यकता है।

व्यापक अध्यापन प्रतिभा
जैसा कि मुझे ज्ञात है, अधिकारिक रूप से वे हिन्दी भाषा के अध्यापक थे परंतु स्वाध्याय, योग्यता एवं कर्मठता, जो कि प्रत्येक बुद्धिजीवी तथा मनीषी का मूलभूत स्वभाव है, के कारण उनकी अध्यापन क्षमता किसी एक शैक्षिक विषय तक सीमित नहीं थी। जिस प्रकार एक आदर्श छात्र कई विषयों में योग्यता रखता है उसी प्रकार उनकी अध्यापन क्षमता (जिसका आंशिक आँकलन भी मैं नहीं कर सकता) अन्यान्य विषयों में भी थी। जिस अधिकार से वे हिन्दी व्याकरण, सूर, कबीर, तुलसी, महादेवी वर्मा, प्रसाद, अज्ञेय एवं अन्य साहित्यकारों की रचनाओं की व्याख्या करते थे, उसी अधिकार से वे रेन एंड मर्टिन की अंग्रेज़ी व्याकरण, विलियम वर्ड्सवर्थ, कीट्स, शैली आदि रचनाकारों के साहित्य की विवेचना करते। यह ही नहीं, संस्कृत भाषा, व्याकरण और श्लोक आदि की व्याख्या, भावार्थ के पठन-पाठन, लेखन और सम्भाषण पर उनका सहज अधिकार था। अनेक अवसरों पर किसी एक साहित्य खण्ड की विवेचना के सन्दर्भ में या अपने भाषणों में अन्यान्य भाषाओं, विद्वानों और संस्कृतियों के समानांतर उदाहरण समझा कर वे उस की पुष्टि करते।

इतनी जानकारी तो उनके लगभग सभी परिचितों को होगी, परंतु यह कम ही लोग जानते थे और सम्भवत: लोगों को आश्चर्य भी होगा कि यही अधिकार उनका उन विषयों पर भी था जो साहित्य के इतर माने जाते हैं - जैसे कि गणित, बीजगणित, ज्यामिति। (यहाँ पर यह ध्यान रहे कि वे मूलत: हिन्दी के अध्यापक थे और गणित, ज्यामिति आदि विषय कदाचित उन्होंने कक्षा 10 तक ही पढ़े होंगे) बीजगणित और ज्यामिति के कठिन से कठिन प्रश्न वे चुटकियों में न केवल हल कर देते वरन उसे विस्तार से भी समझाते। उनकी इस विलक्षण अध्यापन क्षमता का मैं स्वयं लाभार्थी रहा हूँ। मात्र साहित्य के क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले ऐसे कितने व्यक्ति होंग़े जो लगभग 50 वर्ष की आयु में भी कक्षा 10 के विज्ञान-संकाय के गणित के ज़टिलतम प्रश्न भी चुटकियों में हल कर लेते हैं? और वह भी तब जब कि उनका कार्य-क्षेत्र व सामाजिक क्षेत्र विज्ञान अथवा गणित से सम्बद्ध न हो।

इस दृष्टांत को मैंने किसी विशेष प्रयोजन से प्रस्तुत किया है। उनकी इस क्षमता का आधार था उनका स्वाध्याय और अपने विद्यार्थी जीवन में सम्पूर्ण मनोयोग और गम्भीरता से किया गया अध्ययन जिसके फ़लस्वरूप अपने विद्यार्थी जीवन में अर्जित ज्ञान का लाभ वे जीवन-पर्यन्त अपने छात्रों में वितरित करते रहे। (यहाँ पर यह बताना उचित होगा कि अपने विद्यार्थी जीवन में वे एक अत्यंत मेधावी छात्र रहे थे। अति कठिन परिस्थितियोँ व लालटेन के प्रकाश में पढ़ कर भी वे राज्य की हाईस्कूल, इंटर व विश्वविद्यालय की परीक्षाओँ की वरीयता सूची में अग्रगण्य रहे) विद्यार्थियों के लिये उनका यह गुण कि सभी विषयों को महत्व दिया जाय, विशेष रूप से अनुकरणीय है। प्राय: विज्ञान-गणित के विद्यार्थी साहित्य विषयों को और साहित्य आदि के विद्यार्थी विज्ञान-गणित विषयों को भार के रूप में ग्रहण करते हैं और व्यवसायोन्मुख शिक्षा पद्धति के चलते इतर विषयों का मनोयोग से अध्ययन नहीं करते। श्रद्धेय मास्टर साहब के ऐसे गुणों के अनुसरण से विद्यार्थियों को अवश्य ही लाभ होगा, ऐसा मेरा मानना है।

विशिष्ट, शिक्षा शैली
श्रद्धेय मास्टर साहब की अध्यापन शैली का एक और गुण जो कि शिक्षकों और अभिवावकों के लिये विशेष अनुकरणीय है, वह है - क्रोध न करना। अपनी जानकारी में मैंने उन्हें कभी क्रोधित अथवा छात्रों के साथ आवेश में व्यवहार करते नहीं देखा। इस सम्बन्ध में मैं एक घटना का उल्लेख करूंगा।

परीक्षा के दिनों में हम 3-4 विद्यार्थी उनसे किसी पाठ विशेष की व्याख्या समझ रहे थे। अनायास किसी घटना - सम्भवत: टेपरिकॉर्डर की ध्वनि के कारण एक छात्र को हँसी आ गयी और उस हँसी ने क्षण भर में ही हम सभी को प्रभावित कर दिया। अब क्या था! हम सभी मुँह छिपाकर उस हँसी को रोकने का निरर्थक प्रयास करने लगे। हमारी स्थिति को भाँप कर मास्टर साहब एकाएक चुप हो गये। ऐसी स्थिति मे किसी भी अध्यापक का क्रोधित होना स्वाभाविक ही है। हम सभी समझ गये कि वे रुष्ट हो गये हैं और अब हमें अवश्य ही उनके कोप का भाजन बनना पड़ेगा। परंतु यह क्या? उनके मुख पर कोई भी क्रोध, आवेश या तनाव नहीँ, अपितु वही शांत भाव। वे बोले - "पहिले आप लोग जी भर कर हँस लें, उसके उपरान्त हम पुन: पढ़ाई प्रारम्भ करेंगे।" हम सबको जैसे साँप सूँघ गया। कुछ ही पल में हँसी स्वत: ही शांत हो गयी। कोई क्रोध, आवेश, डाँट नहीं, एक अध्यापक का सौम्य निर्देश और हम में भी कोई मानसिक तनाव नहीँ। पुन: वही एकाग्रता और मनोयोग से पढ़ाई प्रारम्भ।

उपरोक्त छोटी सी घटना मास्टर साहब के शांत और सौम्य व्यवहार को परिलक्षित करती है। ऐसी स्थिति में न केवल अध्यापक अपितु किसी अभिवावक की भी क्रोधपूर्ण प्रतिक्रिया स्वाभाविक है, जिससे कि कोई सार्थक परिणाम नहीँ निकलता है। मैंने स्वयं अपने अध्यापन काल में एक-दो बार छात्रों को अन्यमनस्क होने के कारण कक्षा से बाहर किया है। ऐसी स्थिति में भी शांत रह कर मास्टर साहब ने जो प्रतिक्रिया दिखाई उसका हम सभी पर चमत्कारिक प्रभाव पड़ा और उनके प्रति हमारी श्रद्धा तथा मनोयोग से पढ़ने की भावना और भी बलवती हो गयी।

इस घटना के अतिरिक्त भी, प्रतिदिन के अध्यापन, व्यवहार आदि में भी उनका शांत स्वभाव परिलक्षित होता था। प्राय: सभी अध्यापक कुछ गृह-कार्य छात्रों को देते हैं जिसका प्रयोजन छात्रों की प्रगति का आँकलन और तदनुसार उचित मार्गदर्शन होता है। कई अवसरों पर छात्र गृह-कार्य नहीं करते अथवा अपूर्ण करते हैं। ऐसी स्थिति में भी मास्टर साहब का व्यवहार सदा की भाँति शांत होता था। छात्रों की ऐसी लापरवाही पर वे उसे कोई प्रचलित दण्ड नहीँ देते, न ही वे उसे डाँटते, परंतु वे इस की अवहेलना भी नहीँ करते। अपना उत्तरदायित्व मानते हुये वे उसे समझाते और अपने सामने बिठा कर, अपना अतिरिक्त समय देते हुये अपूर्ण कार्य को अवश्य ही पूर्ण कराते। उनके इस व्यवहार से छात्र को स्वयं ही अपनी ग़लती का आभास होता और ऐसी घटना की पुनरावृत्ति कम ही होती और अन्य छात्र भी अपने कार्य को भविष्य में पूर्ण गम्भीरता से करते। यद्यपि इस प्रयास में मास्टर साहब का अमूल्य समय नष्ट होता, परंतु यह समय छात्र को अध्ययन के प्रति गम्भीर बनाने में एक सार्थक प्रयत्न सिद्ध होता। (मै स्वयं भी इस प्रकार के दण्ड का भागी रहा हूँ) ऐसा अनूठा एवं सकारात्मक तरीक़ा था उनके दण्ड देने का!

सम्पूर्ण मार्गदर्शक
श्रद्धेय मास्टर साहब विद्यार्थियों के लिये मात्र एक अध्यापक न हो कर, एक सम्पूर्ण शिक्षक व मार्गदर्शक थे। पठन-पाठन तो मात्र एक माध्यम था और वे अपने सम्पर्क में आने वाले छात्रों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व-विकास का प्रयास करते थे। चाहे वह सदाचार की शिक्षा हो, सामाजिक चेतना, राष्ट्र एवं मातृ-भाषा के प्रति प्रेम, उत्तरदायित्व के विचार, दर्शन-चिंतन की क्षमता का सदुपयोग, आशावादी दृष्टिकोण या कि फिर कर्तव्यपरायणता का पाठ। अध्यापन एवं पठन-पाठन के बीच, वाद-विवाद, समाचार-पत्रों में लेखन, सामाजिक भाषण आदि अन्यान्य माध्यमों के द्वारा दृष्टांतों, पौराणिक कथाओं, सामयिक घटनाओं की मीमांसा, साहित्यकारों के उद्धरण से विद्यार्थियों के उपरोक्त गुणों का विकास उनकी कार्य-शैली में सहज रूप से समाहित था। मास्टर साहब का अटल विश्वास था कि गुणी और निर्भीक विद्यार्थी ही समाज एवं राष्ट्र के उत्थान का आधार है और उनका समग्र व्यक्तित्व-विकास देश सेवा का सार्थक प्रयास है।

अतुलनीय स्नेह और सम्मान
अपने ज्ञान, गम्भीर एवं शांत स्वभाव, उत्तरदायित्वों का सम्यक् निर्वहन, छात्रों से असीम स्नेह, उनके व्यक्तित्व-विकास के सतत प्रयास और अन्य छात्र प्रिय गुणों के कारण वे छात्रों में सदा ही श्रद्धा, स्नेह एवं अतुलनीय सम्मान की दृष्टि से देखे जाते थे और यह सम्मान कि अपवाद स्वरूप ही सही, एक भी छात्र ऐसा मेरी जानकारी में आज तक नहीं मिला जो कि उन्हें परम आदर की दृष्टि से न देखता हो, बिरले ही शिक्षकों को प्राप्त होता है।

अगाध छात्र-प्रेम
उनके शिक्षक जीवन की एक नहीँ कई घटनायें छात्रों का उनके प्रति सम्मान और उनका छात्रों के प्रति अगाध स्नेह प्रकट करती हैं। ऐसी एक प्रमुख घटना के अनुसार मास्टर साहब ने अपने कार्य-जीवन के स्वर्णिम काल-खण्ड में, अन्य उच्चतर महाविद्यालय में उच्चतर वेतनमान पर हुई अपनी नियुक्ति को छात्रों के अनुग्रह और उनके विद्यालय छोड़ने का विरोध करने के कारण ही त्याग दिया। मात्र छात्रों के स्नेह से बंध कर उच्चतर सेवा को त्यागना और तात्कालिक विद्यालय और उसी पद पर रहना सहर्ष स्वीकार किया और उसी विद्यालय में ही सेवा-काल पूर्ण किया। छात्रों का ऐसा स्नेह, सम्मान और शिक्षक के ऐसे त्याग का उदाहरण अन्यत्र कहाँ !
( यह मेरे अपने काल-खण्ड की घटना नहीं अपितु उससे भी कई वर्ष पूर्व की है, और इसके साक्षी, जो उस समय उनके विद्यार्थी थे, आज अपने देश के ही एक प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय उद्योग समूह के स्वामी हैं)
विस्तार से इस घटना और अन्य प्रसंगों का विवरण फिर कभी।

यद्यपि कालांतर में सरकार द्वारा उन्हें सम्मान, प्रशस्ति-पत्र आदि भी प्रदान किये गये, किंतु मेरे विचार से सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार - छात्रों का स्नेह और सम्मान, जिसके सामने शासकीय पुरस्कार नगण्य हैं, उसे वे सदा ही अर्जित करते रहे। न केवल अपने ही विद्यालय के छात्र, अपितु उनके सहकर्मी शिक्षक, शिक्षणेतर कर्मचारी, अधिकारीगण, अन्य विद्यालयों के छात्र, शिक्षक, बुद्धिजीवी, सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्त्ता, जो भी उनके सम्पर्क में रहे, वे सभी उनको श्रद्धा व सम्मान की दृष्टि से देखते।

बहुआयामी और सम्पूर्ण व्यक्तित्व
J P Srivastava - at homeश्रद्धेय मास्टर साहब न केवल एक आदर्श शिक्षक थे, अपितु, एक महान और अनुकरणीय व्यक्तित्व। उनका कार्य-क्षेत्र, शिक्षा के अतिरिक्त राजनीति, सामाजिक कार्य, धर्म और आध्यात्म तक विस्तृत था। इन समी क्षेत्रों में उनका सकारात्मक और सार्थक योगदान था। राजनीति के क्षेत्र में संघ की विचारधारा का उन पर विशेष प्रभाव था। वे संघ के एक अति-कर्मठशील सदस्यों में गिने जाते थे। यहाँ तक कि, संघ के शीर्ष सदस्यों और उससे जुड़े देश के दिग्गज राजनीतिज्ञों में भी उन्हें आदर पूर्वक देखा जाता था। ऐसे जुड़ाव के बाद भी, वे कलुषित और स्वार्थपरक राजनीति से सर्वथा अछूते थे। श्रीमद् भगवदगीता के उपदेश के अनुसार उन्होंने किसी प्रकार के पद, लाभ आदि की कभी अपेक्षा नहीँ की और राजनीति के दुर्गुणों से अप्रभावित रह कर सदा समाज एवं राष्ट्र-हित में कार्य किया। कालांतर में देश में फैली कलुषित राजनीति से उनका हृदय क्षुब्ध हुआ और वे राजनीति से परे हो कर धर्म एवं आध्यात्म के मार्ग पर चलते हुए सम्पूर्ण आस्था, कर्मठता व नि:स्वार्थ भाव से शिक्षण और धार्मिक व सामाजिक कार्यों को करते रहे।

महापुरुषों के जीवन-दर्शन एवं मूल्य - जैसे कि गाँधी का सत्य-प्रेम, स्वामी विवेकानन्द की कर्मशीलता, राष्ट्र-उत्थान की भावना, मार्क्स का सामाजिक चिंतन, राजर्षि पुरुषोत्तम का राष्ट्र-भाषा प्रेम, महर्षि दधीचि का त्याग भाव, गीता के सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक दर्शन - इन सभी विचारों का प्रभाव उनके जीवन और कर्म-शैली पर स्पष्ट परिलक्षित होता था।

श्रद्धेय मास्टर साहब एक कुशल व प्रभावी वक्ता और लेखक थे। हिन्दी, अंग्रेज़ी व संस्कृत भाषाओं पर उनका अधिकार, अपने गहन चिंतन और स्वाध्याय के कारण उनके भाषण व लेख (शैक्षिक, सामाजिक, राजनीतिक, एवं धार्मिक) ओजस्वी और प्रभावशाली होते थे। सम-सामयिक विषयों, सामाजिक विडम्बनाओं के सन्दर्भ में उनके स्पष्टवादी और परिष्कृत लेख और पत्र आदि समाचार पत्रों में भी प्रकाशित होते।

अति साधारण जीवन शैली
अनेकानेक सदगुणों और प्रतिभा से सम्पन्न होते हुए भी उनके व्यवहार में किंचित मात्र भी अहंकार नहीं था। जीवन-पर्यन्त उन्होंने साधारण, आडम्बर-रहित एवं सरल जीवन-शैली का निर्वहन किया। उदाहरणत: वे कोई अति-धनवान व्यक्ति तो नहीँ थे, परंतु, फिर भी आर्थिक क्षमता होते हुए और मोटर-वाहनों के प्रचलित युग में भी साईकिल उनका प्रिय वाहन था। समय-सारिणी व नियम के वे अति पाबंद थे। छोटों के प्रति अपार स्नेह और सभी बड़ों के प्रति सम्मान एवं श्रद्धा उनका सहज स्वभाव था।

विशिष्ट प्रतिभाओं, सदगुणों, सद्व्यवदहार, सदाचार, निर्मल व सरल व्यक्तित्व और इससे ऊपर निरंतर, निश्छल, नि:स्वार्थ कर्मशीलता - ऐसे गुणों का अतुलनीय और सजीव संगम थे श्रद्धेय मास्टर साहब। ऐसे अनुकरणीय व्यक्तित्व और महान शिक्षक किसी भी युग में बिरले ही होते होंगे। यह मेरा सौभाग्य ही है कि विद्यार्थी जीवन व उसके उपरांत भी उनके सान्निध्य एवं आशीर्वाद से मैं सदैव ही लाभान्वित हुआ।

श्रद्धेय मास्टर साहब अपने कृतित्व व उपलब्धियों के माध्यम से सूक्ष्म रूप में आज भी विद्यमान हैं, परंतु उनका देहावसान निश्चित रूप से न केवल मेरे लिये, वरन समाज, शिक्षा-जगत, एवं देश के लिये एक अपूरणीय क्षति थी। उनके न रहने से शिक्षक-जगत में जो शून्य उत्पन्न हुआ था, उसकी पूर्ति मुझे भविष्य में भी असंभव जान पड़ती है। इस संदर्भ में मुझे स्व. पं. नेहरू द्वारा राष्ट्रपिता के निधन पर कहा गया वाक्यांश सम्यक जान पड़ता है -

“The light has gone out of our lives and there is darkness everywhere” - Jawahar Lal Nehru
(हमारे बीच से प्रकाश चला गया है और हर जगह अन्धकार है)

यदि हम सब और विशेष रूप से शिक्षक-जगत, विद्यार्थी, अभिवावक और राजनीतिज्ञ उनके सदगुणों से शिक्षा ले कर उसका एक अंश भी व्यवहार में लायें तो समाज, छात्र-जगत और देश का निश्चय ही उत्थान होगा और यही हम सबकी उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

4 टिप्‍पणियां:

अनूप शुक्ल ने कहा…

राजीवजी, पहले तो आपका इस ब्लागजगत में स्वागत! हमें खुशी है कि एक सजग पाठक एक लेखक के रूप में भी शुरू हुये। और आशा है कि बात निकली है तो दूर तलक जायेगी!
अपनी जिंदगी में जिन गुरुऒं ने मेरे जीवन में अमिट छाप छोड़ी उनमें बाजपेयीजी और जेपीजी प्रमुख थे। संयोग यह कि दोनों भाषाऒं के शिक्षक थे। लेकिन अपने छात्रों के बहुमुखी विकास में सदैव लगे रहे। जेपी हमें हिंदी पढ़ाते थे। जिस बातों का जिक्र किया आपने उसके अलावा मुझे अभी भी याद है कि एक बार उन्होंने हम लोगों को संस्क्रत में वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिये तैयारी करायी थी। वे एक महान शिक्षक थे हमें गर्व है कि हम भी उनके शिष्य रहे सो साल! आपकी इस पोस्ट के लिये आपको बधाई, धन्यवाद भी कि इसी बहाने हमें गुरुजी के दर्शन करने को मिले!

उन्मुक्त ने कहा…

राजीव जी हिन्दी चिट्ठे जगत पर आपका स्वागत है। मैं इस विद्यालय में कभी नहीं पढ़ा पर उससे जुड़े बैरिस्टर नरेन्द्र जीत सिंह के साथ मिलने का मौका मिला। उनके व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित किया।
आपकी अगली पोस्ट का इन्तजार है।

Jitendra Chaudhary ने कहा…

राजीव भाई,
आओ महारथी, इतने दिन लगा दिए, ब्लॉग लिखने में। हम तो पिछले साल ही उम्मीद कर रहे थे कि अब आया ब्लॉग, अब आया।

हिन्दी चिट्ठाकारों के परिवार मे बहुत बहुत स्वागत है। उम्मीद है कानपुर के बारे मे ज्यादा से ज्यादा लिखोगे।

ePandit ने कहा…

स्वागत है राजीव जी हिन्दी चिट्ठाजगत में। गृहप्रवेश करके कहाँ गायब हो गए।