मंगलवार, 31 मार्च 2009

टिप्पणी पर पोस्ट या पोस्ट पर टिप्पणी ?

और यह टिप्पणीनुमा पोस्ट लिख ही गयी आखिर!  यह है "टिप्पणी पर पोस्ट" पर "टिप्पणीनुमा पोस्ट"।

मैं मेटा-ब्लॉगिंग पर नहीँ लिखना चाहता था; कई अन्य अनुभवी ब्लॉगर लिखते ही रहते हैं, अच्छे शोधपरक और सांख्यिकीय प्रेक्षणों से युक्त आलेख। तब हमें क्या आवश्यकता है और हम कौन से मेटा ब्लॉगिंग के शोधकर्ता हैं। फिर भी...। अभी तो बहुत से और भी लोग लिखेंगे... 

ब्लॉगजगत में भटकते हमें रचना जी की यह पोस्ट क्या आपकी टिप्पणी पोस्ट पर होती हैं या आप कि टिप्पणी नाम और उससे जुडे परसेप्शन पर होती हैं, टिप्पणी के बारे में मिली। सवाल छोटा सा था पर था रुचिकर। हमारी सनक जाग उठी और हम लगे लिखने टिप्पणी - सॉरी, प्रतिक्रिया! वह प्रतिक्रिया एक बार फिर आवश्यकता से अधिक बड़ी सी हो गयी। तब सोचा कि इसे पोस्ट का रूप दे दें। तो यह सुरक्षित हो जायेगी। कितना लोभ होता है, हमें अपना लिखा सहेजने का हद होती है परिग्रह की भी! (यही तो राज़ है ब्लॉगिंग की लोकप्रियता बढ़ने का.. ) लिखने के बाद अपनी एक पुरानी पोस्ट - जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला... की याद हो आयी और लालचवश उसे भी देखा - प्रतिक्रिया लिखने के बाद। तब जाना कि हमारे विचार अभी भी लगभग वैसे ही हैं। परंतु अब तक तो हम प्रतिक्रिया तो दे ही चुके थे सो वह प्रतिक्रिया अपने मूल रूप में नीचे लिखी जा रही है। मूल पोस्ट पर इसका संदर्भ दे देंगे अभी

रचना जी,

मुझसे टिप्पणी यदि होती है तो मूलत: आलेख पर। कभी लगता है कि टिप्प्णी करी जाय तो क्या और क्यों। मैं उसे टिप्पणी न मान कर प्रतिक्रिया मानता हूँ और इसलिये इस बात से भी सहमत हूँ कि भिन्न पाठकों पर मिन्न प्रतिक्रिया स्वाभाविक है, रुचि अनुसार, अपेक्षानुसार, परिस्थिति अनुसार आदि। सहज रूप से यदि प्रतिक्रिया होती है और एक स्तर (threshold) से अधिक, तो मैं स्व्त:स्फूर्त टिप्पणी करने का प्रयास करता हूँ। टिप्पणी से पहले कुछ बातें अनायास ही आ जाती हैं। जैसे - मैं उस आलेख में क्या योगदान कर रहा हूँ टिप्पणी से? क्या इसका कोई औचित्य है, आवश्यकता है - या मात्र उपस्थिति प्रमाण? यद्यपि अनेक बार अपनी ही टिप्पणी को पूरा होने से पहले निरस्त कर देता हूँ - यह मान कर कि इस प्रतिक्रिया का कोई महत्व नहीं है या फिर उसके बड़ी हो जाने के कारण।

मेरे साथ एक बात यह भी होती है कि अनेक बार एक पोस्ट रुचिकर लगने पर फिर उसी ब्लॉगर के अन्यान्य आलेख भी देखता हूँ, उसी समय और फिर यदि अन्यान्य आलेख अच्छे लगे तो फिर एक ही समय उन एकाधिक आलेखों पर प्रतिक्रिया करना चाहता हूँ। कभी ऐसा लगता है कि यह ठीक नहीँ है - कभी उन्हें बुकमार्क कर लेता हूँ और बाद में भी प्रतिक्रिया लिखता हूँ, कई बार यह बात फिर टल ही जाती है।

कई बार तो मन यह होता है कि टिप्पणी मात्र लेखक तक भेज कर निरस्त कर दी जाये। कभी-कभी टिप्पणियों को ब्लॉगर को सीधा ई-मेल से भी भेजा है।

रही ब्लॉगर के नाम की बात - वह सिर्फ आपको आलेख के सम्भावित विषय व शैली का पूर्वाभास दे सकती है| मैं तो ब्लॉगर के नाम से पूर्वाग्रह नहीँ रखता। पहले से रुचिकर लेख के ब्लॉगर के नाम से यह संभावना (और अपेक्षा भी) अधिक होती है कि कदाचित इसका नया (पहले से न पढ़ा हुआ पुराना भी) आलेख रुचिकर होगा। कभी कभी ऐसा लगता है कि ब्लॉग में आलेख के अतिरिक्त ब्लॉगर के लिये भी टिप्पणी का प्रवधान होता तो शायद लिख भी देते।

कुछ अपवाद भी हैं हो जाते हैं कभी। जैसे - अपवाद का एक उदाहरण है शब्दों का सफर। मेरी समझ में यह ब्लॉग न हो कर एक संदर्भ-ग्रंथ बन रहा है, सो इसमें तो ब्लॉगर के नाम का प्रभाव होगा ही। इसमें टिप्प्णी मैं अधिक नहीँ करता क्योंकि इसकी किसी एक पोस्ट को मैं अच्छा न मानकर समूचे ब्लॉग को उपयोगी मानता हूँ। 

अब यह टिप्प्णी भी हो ही गयी!

रविवार, 29 मार्च 2009

अपमान की क्लांति से बचना - Open Source तकनीक

चिट्ठों पर यदा-कदा कुछ ऐसा पढ़ने में आता है, जिससे लगता है कि हास्य व्यंग्य कभी-कभी आक्षेप व अपमान का रूप ले लेता है| सम्प्रति ऐसा ही कुछ पढ़ा । यही नहीँ प्रतिदिन की आपसी बातचीत में भी हम को भी यदा कदा ऐसा लगता है कि किसी ने कुछ कटु कह कर हमारा अपमान कर दिया है।

ज्ञान जी अक्सर आत्मविकास के लिये, अलग अलग गुणों के विकास के लिये पशुओं से प्रेरणा लेते ही है, जैसे खच्चर से कर्म, बगुले से ध्यान, ऊंट से कोई अन्य गुण आदि। इसी प्रकार अपमान व ईगो-हर्ट से निजात पाने के लिये हमने विद्युतीय अभियंत्रण से प्रेरणा ले ली - यह जुगाड़ अक्सर कारगर साबित होता है, कभी हम ही दोषी होते हैं।

आकाशीय तड़ित् व बिजली का झटका
आकाशीय बिजली (तड़ित) यदि कहीं गिरती है तो काफ़ी नुकसान करती है। उसका विद्युतीय आवेश बहुत कुछ तहस नहस करता है। इसी प्रकार विद्युतीय चालक (live electric body or conductor) के सम्पर्क से हमें इसका करारा झटका लगता है।
हम आकाशी बिजली अथवा इलेक्ट्रिक शॉक से बचने के लिये इस विद्युत को सुगम मार्ग प्रदान करते हैं। उच्च भवनों में एक विद्युतीय चालक के द्वारा इसे भूमि से जोड़ देते हैं, व ऐसे ही घरों की वायरिंग में अर्थ (Electrical Earth) का इंतज़ाम करते हैं, ऐसे तार से जो कि भूमि से भली भांति जुड़ा हो।
भूमि को विद्युत आवेश का सिंक ( अवशोषक) भी मानते हैं। किसी प्रकार के हानिकारक आवेश को भूमि के अन्दर समाने का सुगम मार्ग बना कर हम इससे बच जाते हैं। तड़ित्-चालक अथवा इलेक्ट्रिक अर्थ के माध्यम से हानिकारक विद्युतीय आवेश हानिकारक ऊर्जावान होते हुए भी सुगम मार्ग से होता हुआ धरा में अवशोषित हो जाता है और हानि नहीँ पहुंचाता।

अपमान को अर्थ (Earth) करने की व्यवस्था
हमने भी इसी तकनीक को अपमान, ठेस आदि से बचने का तरीका माना है (बहुधा कामयाब रहता है) - बस मानसिक कण्डक्टर से अपमान को अर्थ (earth) कर देंते हैं, अपने पास आने नहीं देते। धरणी ऐसे अपमान का आवेश आसानी से अवशोषित कर लेती है और हम बच जाते हैं उसके हानिकारक प्रभाव से !

यह मुक्त स्रोत (Open Source) तकनीक शायद दंभ, क्रोध आदि में भी कारगर हो - पर बहुत अभ्यास और निपुणता लगेगी, हमें तो अभी। अभी ठीक से क्रोध करने की क्षमता तो अर्जित करें - मौज इसको विकसित जो नहीं होने देती!

इसी क्रम में एक और तकनीक और भी आगे सहेजने का प्रयास होगा।


सोमवार, 23 मार्च 2009

बाबा को लिखते देखा है,

आज बाबा नागार्जुन के संस्मरण से सम्बन्धित एक पोस्ट पढ़ी बाबा नागार्जुन को मैंने लिखते हुए भी देखा है, जिसमें कि शास्त्री जी ने बाबा नागार्जुन के सान्निध्य में बिताये कुछ दिनों का वर्णन किया है। शास्त्री जी ने बाबा नागार्जुन के बारे में अन्य सचित्र आलेख भी लिखे हैं। शास्त्री जी लिखते हैं

रात में जब मेरी आँख खुली तो मैंने सोचा कि एक बार बाबा को देख आऊँ। मैं जब उनको देखने गया तो बाबा ट्यूब लाइट जला कर एक हाथ में मैंग्नेफाइंग ग्लास ग्लास लिए हुए थे और कुछ लिख रहे थे। मैंने बाबा को डिस्टर्ब करना उचित नही समझा और उल्टे पाँव लौट आया।

रात में जब 1-2 बजे मेरी आँख खुलती थी तो बाबा के एक हाथ में मैग्नेफाइंग-ग्लास होता था और दूसरे हाथ में पेन।

मैंने बाबा को 76 साल की उम्र में भी रात में कुछ लिखते हुए ही पाया था।
बाबा नागार्जुन की एक कविता (कदाचित सर्वाधिक लोकप्रिय भी), "बादल को घिरते देखा है..." मेरी सर्वाधिक प्रिय कविताओं में सर्वोपरि है, इस का स्वीकरण मैंने अन्यत्र भी कर चुका हूँ, अंतर्जाल पर भी यह सुन्दर कविता उपलब्ध है ही। मैं उनकी कविता का साहित्यिक स्तर आँकने के योग्य तो नहीँ हूँ, पर इतना अवश्य है कि इस कविता की हर एक पंक्ति और हर एक शब्द विशेष रूप से चयनित है और सम्पूर्ण है।

यह एक विस्मयकारी संयोग था कि उनके संस्मरण पढ़कर और उस पर उनकी पोस्ट का शीर्षक पढ़ कर मुझे उनकी कविता और पोस्ट के शीर्षक में कुछ ध्वन्यात्मक साम्य लगा और कुछ पंक्तियाँ सहज ही बन गयीँ, उन पंक्तियों को फिर संपादित कर यहाँ लिख दिया है ताकि कि ये विस्मृत न हो जायें। साथ ही उनकी कविताओं की कुछ कड़ियाँ भी सन्दर्भ के लिये। मैं किसी भी स्तर का कोई कवि या रचनाकार होने का भ्रम नहीँ पाल रहा हूँ, मात्र सहेजने के प्रयास से इन्हें यहाँ लिख दिया है। कदाचित कभी संशोधित भी कर दी जाय।

बादल को घिरते देखा है !
बाबा को लिखते देखा है...

जीवन पथ के उस पड़ाव पर,

दृष्टि क्षीण थी पर नहीँ पराजित।


निशाकाल के शांत प्रहर में,

नभ में था विस्तार तिमिर का
,
पर आलोकित कृत्रिम प्रकाश से

अंतर्कक्ष की मद्धिम ज्योति में

उस एकाकी कवि के द्वारा

साहित्य सृजन होते देखा है।

जब शयन रत थे प्राणिमात्र सब,
कवि मन को कैसा विश्राम? 
निस्तब्ध शांति के ऐसे क्षण में, 

वीणापाणि के वरद पुत्र को

मनोयोग से चिंतन करते,

लेखन - मनन करते देखा है।


बाबा को लिखते देखा है...


सन्दर्भ हेतु बाबा नागार्जुन की उपरिवर्णित कविता की कुछ कड़ियाँ

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

महात्मा गाँधी की निजी वस्तुओँ का मोल देश के प्रमुख मदिरा व्यवसायी ने चुकाया

कितनी विडम्बना की बात है यह कि जिस व्यक्ति को देश व सम्पूर्ण विश्व सत्य, शांति और अहिंसा के पुजारी के रूप में जानता है, जिन्हें हम भारतवासी राष्ट्रपिता का सम्बोधन देते हैं, उन्हीँ की निजी वस्तुओं की सार्वजनिक नीलामी, विश्व के भौतिक रूप से सम्पन्न राष्ट्र सं. रा. अमेरिका के व्यवसायी द्वारा धन, व शायद लोकप्रियता प्राप्त करने के लोभ के वशीभूत हो कर दी गयी।

समाचार के अनुसार, न केवल यह बल्कि उसने तो इन वस्तुओं को भारत को वापस करने का प्रस्ताव स-शर्त रखा - यदि भारत अपनी रक्षा-नीतियों (रक्षा-खर्च) में कटौती करे (व उन्हें स्वास्थय सेवाओं में लगाये) परंतु यह भी शायद अभिनय ही था। वह भी रखा या नहीँ, यह तो आने वाले समाचारों से विस्तार से मालूम हो जायेगा।

शायद अधिकृत रूप से इसे रोकने में वह सरकार असमर्थ थी, अथवा नहीँ, यह तो कानून-विज्ञ जानें परंतु मेरी दृष्टि में यह घटना वहाँ के समाज / सरकार / व्यवसायिकता की निम्न स्तरीय मानसिकता को दर्शाती है। यही देश विश्व में लोकमत, न्याय व शांति प्रसार का ढिढोरा पीटता दिखायी देता है

क्या इसे वह सरकार अथवा व्यवसायी वास्तव में चाहते तो क्या उनके द्वारा इसे रोका जाना चाहिये था? क्या दूसरे राष्ट्र के व्यक्ति को ऐसे परिप्रेक्ष्य में भारत को अपनी नीति निर्धारण के निर्देश देने का प्रयास उचित है?

और यह भी विडम्बना ही है कि उसी राष्ट्रपिता, जिनके जन्म-दिन पर श्रद्धा के प्रतीकस्वरूप पूरे देश में मदिरा की सार्वजनिक बिक्री पर प्रतिबन्ध है, उनकी निजी वस्तुओं को सार्वजनिक नीलामी में उसी मदिरा के प्रमुख भारतीय व्यवसायी, विजय माल्या के प्रतिनिधि द्वारा इसका मोल चुका कर खरीदा गया।

कल्पना करता हूँ कि क्या भारत अथवा कोई भारतीय नीलामकर्ता ऐसा कर सकता था? ...

हे राम!

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विस्तृत समाचार:
http://www.newspostonline.com/world-news/vijay-mallya-buys-gandhi-memorabilia-for-18-mn-third-lead-2009030637471

http://timesofindia.indiatimes.com/India/Gandhis_items_sold_for_USD_18_million_/articleshow/4231248.cms