शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2007

प्रश्नव्यूह - चिट्ठे, फिल्में, पुस्तकें और वरदान

यह चिठ्ठी भी बड़ी हो गयी है। कई प्रश्नों के उत्तर देने थे, वह भी कारण सहित। हम समझ बैठे कि कोई वरिष्ठ पत्रकार हमारा सक्षात्कार ले रहा है। इसी ख़ुशफ़हमी में बहुत लिखना हो गया... उत्तर पहले ही तैयार था पर सम्पादित और छोटा करने के निरर्थक प्रयास में दो दिन व्यर्थ गये।

इस चिट्ठी को लिखना विवशता ही थी। कारण कि मुझको उन्मुक्त जी के अनमोल तोहफे में नामित कर दिया गया कुछ व्यक्तिगत प्रश्नों के उत्तर देने के लिये और फिर वह डर... सर मुँड़ाते ही ओले पड़े

उन्मुक्त जी की प्रश्नावली इस क्रम से थी:
1. आपकी सबसे प्रिय पुस्तक और पिक्चर कौन सी है?
2. आपकी अपनी सबसे प्रिय चिट्ठी कौन सी है?
3. आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते हैं?
4. क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तिव में कुछ परिवर्तन या निखार किया?
5. यदि भगवान आपको भारतवर्ष की एक बात बदल देने का वरदान दें, तो आप क्या बदलना चाहेंगे?

प्रथम दृष्टया अधिकतर सवाल मुश्किल प्रतीत हुए। प्रश्नों पर पुन: ध्यान देने पर लगा कि बात इतनी कठिन नहीँ है - ख़ासतौर पर मेरे लिये। क्यों भई..., मैं अधिक चतुर या हाज़िर-जवाब हूँ? नहीँ, यह बात नहीँ पर ध्यान दें कि दो प्रश्न (प्र. 2, 4) ऐसे है, जो कि अपने चिठ्ठा-लेखन पर आधारित हैं और चूँकि मेरा चिठ्ठा लेखन जुमा-जुमा कुछ दिन ही पुराना है, लिहाज़ा इनसे मैं बडी, चतुरता से कन्नी काट सकता हूँ अथवा इनका उत्तर मेरे लिये बहुत सरल होगा।

इन प्रश्नों के उत्तर के क्रम में मैं कुछ बदलाव करूंगा। सरल प्रश्नों के उत्तर पहले और कठिन प्रश्नों के बाद में। परीक्षा प्रश्न-पत्र के उत्तर में भी अधिकतर विद्यार्थी ऐसा ही करते हैं। तो मेरा पसंदीदा क्रम होगा - 2,3,4 और 1, 5 । ध्यान दिया जाय कि इन पाँच प्रश्नों में वास्तव में छुपे हैं छ: प्रश्न। जरा, प्रश्न सं. 1 को देखें (पुस्तक और फिल्म) - यह बिल्कुल वैसे ही है - जैसे कि परीक्षाओं में होता है - प्रथम प्रश्न के दो भाग - (क) और (ख) - और दोनों ही अनिवार्य।

पहला उत्तर
प्र. 2. आपकी अपनी सबसे प्रिय चिट्ठी कौन सी है?
उ. यदि मैं एक लम्बे अरसे से लिख रहा होता अथवा कम अरसे में ही ढेरों चिट्ठियाँ लिख मारी होतीँ तब तो यह कठिन था। लेकिन नहीं- शायद तब भी नहीं (यह तो उत्तर से मालूम हो जायेगा) परंतु यहाँ तो स्थिति सरल है - कुल जमा 2-3 पोस्टोँ से चुनाव करना बहुत आसान है - सर मुँड़ाते ही ओले पड़े व यह पोस्ट तो सवाल-जवाब, अर्थात एक ही मसले में गिन लेते हैं। अब बची सिर्फ दो - सुरभित डाक-टिकट और मास्टर साहब । तो मामला बिल्कुल साफ है - मेरी सबसे अच्छी पोस्ट नि:संदेह मास्टर साहब ही है

इसके और भी कारण हैं - यदि मैंने सैकड़ों पोस्टें भी लिखी होतीं तब भी मेरे लिये वही सर्वोत्तम होती। एक तो वह चिट्ठी प्रथम है और प्रथम का स्थान तो सभी जानते हैं! दूसरे यह कि जिस व्यक्ति के लिये वह पोस्ट है, उन्हीं की शिक्षा के परिणाम स्वरूप मैं आज कुछ भी लिख पा रहा हूँ। गुरु का स्थान तो सभी से ऊपर होगा ही। एक और बड़ी वजह - यदि कभी ऐसा भी हो कि उस पोस्ट को कई व्यक्ति पढ़ चुके हों, जिनमें शिक्षक, विद्यार्थी अथवा अभिवावक शामिल हों और एक..., मात्र एक की शिक्षा, जीवन या व्यवहार उससे लाभान्वित हो, तो यह मेरा सौभाग्य होगा। मैं तो गुरु - ऋण को नहीँ चुका पाया हूँ पर इस प्रकार किसी के भी लाभान्वित होने से यदि उस ऋण का एक अंश भी चुकता हो पाता है, तो ऐसी स्थिति में मैं क्या, कोई भी ऋणी व्यक्ति प्रसन्न ही होगा। यदि एकाधिक व्यक्तियों का भला हो तो कहने ही क्या! इस कारण यह मेरी सबसे प्रिय चिठ्ठी है। जानकारी हेतु संदर्भ देखें - मास्टर साहब

दूसरा उत्तर
प्र. 3. आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते हैं?
उ. बहुत सरल प्रश्न है यह मेरे लिये। ध्यान दें - यदि कहीं यह प्रश्न जरा सा भी घूम जाता तो बड़ी मुश्किल पड़ जाती। यदि कोई चिठ्ठों अथवा चिठ्ठाकारों के नाम पूछ लेता तो शायद यह प्रश्न छोड़ देना पड़ता। यह वैसे ही है, जसे परीक्षा में होता है। कोई-कोई प्रश्न बड़ा कठिन होता है, पर सौभाग्य से परीक्षा में उसका अपेक्षाकृत सरल रूप पूछा जाता है।
मैं कई प्रकार के चिठ्ठे पसंद करता हूं - जैसे, व्यंग्यात्मक, सूचनापरक, तकनीकी विषयों पर लिखे गये चिट्ठे, हल्के फुल्के और अपने आप में संपूर्ण चिट्ठे। स्वास्थ्य, यात्रा-वृतांत और छायाचित्रण से सम्बन्धित चिट्ठे भी मेरी रुचि की परिधि में हैं। अमाँ, सब-कुछ तो है अपनी पसंद में, क्या नहीं है? तो, मैं काव्य-पाठ सुनने में तो विशेष रुचि रखता हूँ पर पढने में यदा-कदा वह आनन्द नहीं आता। यद्यपि कभी-कभी स्वत: ही नज़र पड़ जाती है और मैं अपने सामने पाता हूँ - एक उत्कृष्ट कविता। कभी-कभी उन पर टिप्पणी भी की है। सारांश यह, कि मैंने प्रयत्न नहीं किया पर कई बार अच्छी कविताएं अपने आप ही दिख गयीँ और स्वयं ही पढ़वा गयीं मुझे। राजनीतिक समीक्षाओं वाले चिठ्ठे भी मुझे विशेष नहीं लुभाते।

तीसरा उत्तर
प्र. 4. क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तित्व में कुछ परिवर्तन या निखार किया?
उ. यह भी बहुत सरल प्रश्न है- केवल मेरे लिये। वही बात- जो लोग अरसे से लिख रहे हैं, वे कदचित सही उत्तर दे सकें। अब 2-4 पोस्टों से तो कोई चिठ्ठाकार की उपाधि नहीं प्राप्त कर लेता सो मैं इस प्रश्न से भी बाहर हो सकता हूँ। कहीं यदि कोई प्रार्थना-पत्र भर रहा होता तो साफ-साफ लिख देता - लागू नहीँ होता (Not Applicable) पर चलो कुछ तो कहते हैं यहाँ। इस प्रयास ने व्यक्तित्व में कुछ परिवर्तन या निखार तो नहीं किया - दो पोस्टों में भला क्या व्यक्तित्व-निखार आवेगा? एक बात स्पष्ट है - समय-सारिणी में परिवर्तन जरूर कर दिया है। हिन्दी पढ़ते हमेशा रहे, अच्छी भी लगती रही, पर लेखन - कभी नहीं... सोचा भी नहीं और टंकण, बाप रे बाप...। वर्षों तक कुंजी-पटल पर if, Dear, Thanks, टिप-टिपाने के बाद जब हिन्दी में टंकण करना पड़ता है और 1 मिनट का कार्य 5 मिनट में हो पाता है तो...? अब चिठ्ठाकार तो यह सब जानते ही हैं। जाके पैर न पड़ी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई | जब से यह 2-3 पोस्टें लिखी हैं, तब ही जान पाया हूँ इस यंत्रणा को। सो इस मशक्कत ने तो समय-सारिणी को खा ही डाला है। बस यही एक बड़ा... बहुत बड़ा और अनामंत्रित परिवर्तन आया है।

चौथा उत्तर
प्र. 1. आपकी सबसे प्रिय पुस्तक और पिक्चर कौन सी है?
उ. (ख) प्रिय चलचित्र
यह भी आसान होता जान पड़ता है। मैं चलचित्र दिखने का शौकीन तो हूं नही लिहाज़ा अक्सर अपने मित्रों, में बड़ी उलाहना पाता हूँ। जब कभी किसी ने चलचित्र देखने की पेशकश की, मैं कन्नी काटता दिखाई दिया। मुम्बई प्रवास के दौरान जब मेरे मित्र चलचित्र देखने गये तब मैंने उस अवधि में रात्रि-काल में 3 घंटे एकांत में निर्जन समुद्र-तट का विचरण बेहतर समझा। बडे रुष्ट थे वे मित्र मुझसे। इसका यह अर्थ नहीं कि मैंने कभी कोई चल-चित्र देखा न हो। घर बैठे टीवी./ डी.वी. पर मैं यदा-कदा फिल्म देख लेता हूँ - आंशिक ही सही। रही पसन्दीदा फिल्म की बात - तो मुझे कई फिल्में पसन्द हैं। यदि एक से अधिक को चुनना होता तो आसान होता, सर्वाधिक प्रिय फिल्म तो ऐसी है कि लोग कहेंगे कि...। चलिये, मैं चुनता हूँ... एक विशिष्ट फिल्म को... जिसका नाम है... पुष्पक 1988 में बनी और कमाल हसन, अमला व टीनू आनंद द्वारा अभिनीत । कारण - जिन्होंने देखी है, वे जानते होंगे कि यह आधुनिक काल में बनी एक मूक फिल्म है। मूक फिल्में और भी बनी है, बहुत पहले भी बनती थीँ। उस समय तकनीकी बाध्यताएं रही होंगी, पर इस फिल्म को मूक बनाने में कोई तकनीकी विवशता नहीं रही होगी। संवाद हीनता के होते भी, इस फिल्म में कहीं भी, कभी भी, संवादों का न होना केवल अखरता ही नहीं, अपितु संवाद शून्यता का आभास ही नहीं होता। किसी पात्र के न बोलते हुए भी पूरी कथावस्तु पूर्ण प्रभावी रूप में प्रस्तुत की गयी है। मैं समझता हूँ, कि कहानीकार, छायाचित्रकार, संगीतकार, दिग्दर्शक और पात्रों को कड़ी मेहनत करनी पड़ी होगी, इसे बनाने में। यह कारण है कि मुझे यह फिल्म प्रिय लगी।

उ. (क) प्रिय पुस्तक
सावधान! यह सवाल तो अच्छा है पर उत्तर दीर्घाकार ।...

पुस्तकें मेरी प्रिय मित्र थीँ। मेरी रुचियाँ विविध प्रकार की रहीं है और विविध विषयों की पुस्तकें पढ़ी है - परंतु एक क्षेत्र विशेष में नहीं और न ही किसी विषय में निष्णात हूँ। इस कारण पहले कुछ रुचिकर विषयों के बारे में लिखना बेहतर होगा। पाठ्यक्रम में कई साहित्यकारों को पढ़ना रुचिकर लगा - प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला, सांकृत्यायन, टैगोर, वेल्स। स्कूल में विवेकानन्द साहित्य भी पढ़ाया गया जो कि उपयोगी व प्रेरणास्पद था। इसके अतिरिक्त विज्ञान की ग़ैर-पाठ्यक्रम की पुस्तकें मज़ेदार लगती थीं। मेरी माँ ने अविष्कारकों की कथाएं - जिसमें गैलेलियो, न्यूटन, वशिंगटन कार्वर थे और क्यूँ और कैसे (How and Why) की पुस्तकें दी थीं और ये मुझे रोचक लगीँ।

तकनीकी शिक्षा के दिनों में पुस्तकालय मेरा प्रिय स्थान था - पाठ्य-पुस्तकों से अधिक विविध विषयों की पुस्तकों हेतु। पहली बार इतना विस्तृत भंडार देखा था पुस्तकों का। यदा-कदा विमल मित्र, शरतचंद्र, भीष्म साहनी आदि के उपन्यास पढे जो कि अच्छे लगे। कभी गाँधी की आत्मकथा (... Experiments with truth... अपूर्ण पढ़ी), कभी एरिक सीगल (Eric Segal) की लव स्टोरी व ओलिवर्स । कोनन डॉयल (Sir Arthur Conan Doyle) की शेरलॉक होम्स में विशेष आनन्द आता था, अब भी आता है - होम्स और वॉट्सन की चिर-परिचित शैली में। अधिकांशत: तकनीकी पुस्तकें, और पत्रिकाएं ही पढीं। उन्मुक्त जी, मैंने आप द्वारा बताई गयी - "Surely, You are Joking Mr. Feynman" भी पढ़ी (आंशिक), मज़ा आया। फ़ोटोग़्राफी की भी पुस्तकें पढ़ी पर शौक महंगा था। सुगन्धि विज्ञान की पुस्तकें पढ़ीं भी और कुछ प्रयोग भी किये। रचनाएं तो अनेक अच्छी लगीं - जैसे नागार्जुन की कविता बादल को घिरते देखा है (अति कलामय, चित्रात्मक), राग-दरबारी, ईदगाह (प्रेमचंद), तमस (भीष्म साहनी) , Lady Chatterly... (Lawrence), Dr. Zhivago (Boris Pasternak) आदि।

अब इंटरनेट के बाद से तो क्या कहने... यह बात मैं मानता हूँ, कि पुस्तकों में जो आनन्द और एकाग्रता सम्भव थी, इंटरनेट से नहीँ। इंटरनेट पर विषय का विस्तार और अन्य सदर्भित सामग्री (Hyperlinks द्वारा) बहुत है। यही कारण है अब मेरा पुस्तकों से मित्रता न निभा पाने का और यही कारण इस बात का भी है कि हम भागते रहते हैं - इधर से उधर - एकाग्रता नहीं होती परंतु विविधता के होते, बहु-विषय में रुचि होते और सरल साधन के कारण अब पठन-पाठन तो होता है, मगर पुस्तकें नदारद हैं - अंतर्जाल ने उनका स्थान ले लिया है। विविधता की कोई सीमा नहीं है अब।

ऐसे अपूर्ण और विविध पाठन के चलते सर्वाधिक प्रिय पुस्तक कैसे? ठीक है, दो पुस्तकों का उल्लेख करता हूँ।

उपन्यासों की श्रेणी में मै नि:सन्देह उल्लेख करूंगा विमल मित्र के उपन्यास "खरीदी कौड़ियों के मोल" का। वृहद उपन्यास - जो कि प्रस्तुत करता है तात्कालिक समाज की छवि - दीपंकर, लक्ष्मी दी, सती दी, सनातन बाबू और अघोर दादू जैसे पात्रों के व्यवहार एवं चरित्र के माध्यम से। विश्व-युद्ध और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की समकालीन बदलती घटनाएं समानांतर रूप से रुचिकर कथानक की पृष्ठभूमि हैं। बारम्बार सोचने पर विवश करती है कहानी कि कौड़ियों से सब कुछ खरीदा जा सकता है अथवा नहीं और धैर्यवान पाठक प्रारम्भ से अंत तक झूलते रहते हैं - हाँ और नहीँ के बीच। इस उपन्यास में समाज की बुराइयां, अच्छाइयाँ, दम्भ, सहिष्णुता, प्रीति, ग्लानि.. अर्थात अनेक भावनाओं का भी समावेश है।

एक उल्लेखनीय और मज़ेदार पुस्तक - Elementary Pascal: Teach Yourself Pascal by Solving the Mysteries of Sherlock Holmes (Henry Ledgard and Andrew Singer) यह अपने आप में अनोखी किताब थी, जिसमें कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की भाषा पास्कल को बड़े मनोरंजक ढंग से समझाया गया था और जब शेरलॉक होम्स और डॉ. वॉटसन के माध्यम से गुत्थी सुलझाते हुए प्रोग्रामिंग समझाई जाए तो आनन्द आना स्वाभाविक था। पुस्तक मिलने से पूर्व पास्कल मुझे आती तो थी, इस पुस्तक को इसलिये पढ़ा कि देखें रहस्य कथाओं और कम्प्यूटर की शिक्षा का मेल कैसा रहता है।

पाँचवां उत्तर
प्र. 5. यदि भगवान आपको भारतवर्ष की एक बात बदल देने का वरदान दें, तो आप क्या बदलना चाहेंगे?
उ. 5. क्या प्रश्न दिया है महाराज! एक कहावत / कविता याद आती है -
If wishes were horses, beggars would ride...

अब कल्पना ही करनी है, तो कोई बन्धन कैसा! हम सभी चाहेंगे भारतवर्ष में बहुत कुछ बदलने को... सहसा विश्वास ही नहीँ होता कि ऐसा वरदान मिल सकता है... इसीलिये तो कुछ समझ नहीं आता... कि क्या मांगा जाय...

सोचता हूँ... शिक्षा पद्धति... या... सैन्य-बल... या... वाणिज्य-व्यापार... या राजनैतिक-परिवेश... शासन-व्यवस्था... टेक्नॉलॉजी... बड़ी मुसीबत है... किस एक को चुनूँ?

कल्पना के घोड़ों को दौड़ाने में क्या लगता है? जब मात्र कल्पना ही करनी है, तो दूर की ही की जाय... एक वरदान में ही ऐसा किया जाय कि सभी कुछ, या बहुत कुछ अच्छा हो जाय... ऐसी कोई जुगत मिले तो मज़ा है!

तो यह (?) ठीक रहेगा...
वैसे तो यह हो ही नहीं सकता, यदि भगवान स्वयं चाहें तब भी। उनकी भी आखिर सीमाएं हैं।

ऐसा भला क्या है जो वे भी नहीं कर सकेंगे? वे तो सर्वशक्तिमान हैं।

हां ऐसा है...। काल-चक्र को वे भी नहीं रोक सकते, और उसे पीछे ले जाना भी उनके लिये भी ना-मुमकिन है। कदाचित ऐसा मानना है कि वे भी काल चक्र का उल्लंघन नहीं कर सकते।
तब...? मेरी तो यही कामना थी...

क्या देश को बंटवारे के पूर्व ले जाना चाहते हो?
नहीं और पीछे...

क्या रामराज्य चाहिये? ...
अरे, क्या बात है!... परंतु नहीँ, तब तो बड़ी गड़बड़ हो जायेगी! ... कुछ चुनिन्दा लोगों का, दलों का ही बोलबाला हो जायेगा!

तो थोड़ा वापस चलें? ...
हाँ यदि सम्भव हो तो भारत के काल-चक्र को चन्द्रगुप्त मौर्य या सम्राट अशोक के काल अथवा गुप्त काल विक्रमादित्य में रोक दें, बस इतना ही बहुत है, फिलहाल!

क्यूँ भला...? तब तो MNC, NRIs और FIIs, FDIs सब ग़ायब हो जायेगा? यह कम्प्यूटर, मोबाईल, इंटरनेट... कुछ भी नहीं होगा? तुम भी नहीँ? आधुनिक तकनीकी ज्ञान भी नहीँ?... क्योँ? क्या कहते हो ?

हाँ वह तो है, पर मुझसे कहा गया था, भारतवर्ष के लिये कुछ वरदान मांगने को - तो यही तो वे कालखंड हैं, जिनमें भारतवर्ष का सैन्य बल, शिक्षा पद्धति, अर्थशास्त्र, शासन-प्रणाली, नक्षत्र-विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान, धातु-कर्म, गणित, नीति-शास्त्र आदि अपनी चरम सीमा पर थे। इन्हीं में से एक काल ख़ंड को भारतीय इतिहास का स्वर्ण-युग भी कहा गया है तथा एक और काल-खंड में भारत की सीमाएं अपनी शिखर पर थीँ। इन्ही काल खंडों में ही हमारे तक्षशिला और नालन्दा जैसे शिक्षण संस्थान विश्व प्रसिद्ध थे और सम्पूर्ण विश्व में भारत को अति सम्मान के रूप में देखा जाता था। अब कौन नहीं चाहेगा विश्व में सर्वोच्च सम्मान वाले देश का नागरिक होना? रामराज्य या वैदिक काल न ही सही, पर एक शक्तिशाली और सम्पन्न तो होगा यह राष्ट्र।

और तो और, इस प्रकार के एक वरदान के पूरे होने से अनेक क्षेत्रों में बदलाव हो जायेगा और कदाचित बेहतरी की ओर ही।

अब यदि भगवान यह कर पाएं... तो टिप्पणी अथवा ई-मेल द्वारा बताएं!


आगे की कड़ी -
अब आती है, प्रश्नों की बारी - तो मैंने इस खेल में विविधता / चुनौती लाने के लिये अन्य शाखाओं में पूछे गये कुछ अतिरिक्त प्रश्नों का समावेश किया है। इसका मतलब यह नहीं कि प्रश्न अधिक है। उत्तरदाताओं की सुविधा और स्वतंत्रता का भी ख़्याल रखा है।
(कुछ मुश्किल बढ़ाते है, किंतु सुविधा भी। आपकी सुविधानुसार कोई भी पांच प्रश्न चुन लें, सभी समान महत्व के हैं)

1. आपकी दो प्रिय पुस्तकें और दो प्रिय चलचित्र (फिल्म) कौन सी है?

2. इन में से आप क्या अधिक पसन्द करते हैं पहले और दूसरे नम्बर पर चुनें - चिट्ठा लिखना, चिट्ठा पढ़ना, या टिप्पणी करना, या टिप्पणी पढ़ना (कोई विवरण, तर्क, कारण हो तो बेहतर)

3. आपकी अपने चिट्ठे की और अन्य चिट्ठाकार की लिखी हुई पसंदीदा पोस्ट कौन-कौन सी हैं?
(पसंदीदा चिट्ठाकार और सर्वाधिक पसंदीदा पोस्ट का लेखक भिन्न हो सकते हैं)

4. आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते हैं?

5. चिट्ठाकारी के चलते आपके व्यापार, व्यवसाय में कोई बदलाव, व्यवधान, व्यतिक्रम अथवा उन्नति हुई है
(जो किसी व्यवसाय अथवा सेवा में नहीं हैं वे अन्य प्रश्न चुनें)

6. आपके मनपसन्द चिट्ठाकार कौन है और क्यों?
(कोई नाम न समझ मे आए तो हमारा ले सकते हैं ;) पर कारण सहित)

7. अपने जीवन की सबसे धमाकेदार, सनसनीखेज, रोमांचकारी घटना बतायें
(इसके उत्तर में विवाह की घटना का उल्लेख मान्य नहीँ है ;) )

8. आप किसी साथी चिट्ठाकार से प्रत्यक्ष में मिलना चाहते हैं तो वो कौन है? और क्यों?

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निम्न चिट्ठाकारों आग्रह है कि इस प्रश्नव्यूह को स्वीकार कर, कड़ी को आगे बढ़ाने में सहयोग करें


Divine India - दिव्याभ जी - http://divine-india.blogspot.com/
फ़लसफे - पूनम मिश्रा जी - http://poonammisra.blogspot.com/
घुघूती बासूती जी - http://ghughutibasuti.blogspot.com/
लखनवी - अतुल श्रीवास्तव जी - http://lakhnawi.blogspot.com/
दस्तक - सागर जी - http://nahar.wordpress.com/

7 टिप्‍पणियां:

उन्मुक्त ने कहा…

रचना जी के द्वारा पूछे गये दो प्रश्न वास्तव में मुश्किल थे। इसीलिये मैंने तीसरे प्रश्न को सरल कर दिया था।
क्या Elementary Pascal: Teach Yourself Pascal by Solving the Mysteries of Sherlock Holmes मेरे जैसे तकनीक से न जुड़े लोग के लिये जो पास्कल पर न काम करते हों के लिये कुछ उपयोगी होगी।

rachana ने कहा…

बडी पोस्ट पढने की मामले मे थोडी कमजोर हूँ, लेकिन आपके उत्तर पढ्ना रुचिकर रहा. और इस सिलसिले का उद्देश्य ही यही है कि नये- पुराने और विविध रुचि रखने वाले लोग कुछ कहें ताकि मेरे जैसे लोग उनसे लाभ हासिल कर सके.

बेनामी ने कहा…

लेख बढ़िया लगा । जेपीजी हमारे भी प्रिय अध्यापक रहे हैं। राग दरबारी व खरीदी कौड़ियों के मोल हमारी भी प्रिय किताब रही। तमाम रुचियां साझा, शहर साझा अब लगता है आपसे नियमित मिलना -पड़ेगा!

Rajeev (राजीव) ने कहा…

उन्मुक्त जी,

वैसे तो पास्कल भाषा अब प्रचलन में नहीं है, परंतु Structured Programming की जनक ज़रूर थी। यह संगणक विज्ञान के Data Structure व alogorithms सीखने के लिये अति उत्तम व strict भाषा थी (है)। उपरोक्त पुस्तक की प्राथमिक उपयोगिता इस भाषा को सीखने में है, इसके अतिरिक्त जिज्ञासु व्यक्ति इसकी रोचक और मनोरंजक शिक्षा शैली से भी यह सीख सकते हैं कि गम्भीर विषय को सहज रूप से ग्राह्य कैसे बनाया जावे। यदि कहीं यह उपलब्ध हो तो आप जैसे लोग इसमें आनंद पा सकते हैं - बशर्ते कुछ-कुछ गम्भीर programming concepts भी देखने को तैयार रहें।

Rajeev (राजीव) ने कहा…

रचना जी,

आपको कुछ भी रुचिकर अथवा लाभकारी लगे तो यह प्रसन्नता की बात ही होगी।


अनूप जी,
क्यों नहीं... स्वागत है। हम ही चले आयेंगे कभी... बस अपनी तो अनियमितता ही नियमित है।

Poonam Misra ने कहा…

राजीवजी ,आपकी टिप्पणी से पता चला कि आपने हमें भी टैग किया है.और आपके बारे में भी कुछ पता चला."बस अपनी तो अनियमितता ही नियमित है...!" जवाब लिखूंगी पर ज़रा फुर्सत से.इंतज़ार करियेगा

Divine India ने कहा…

राजीव जी,
काफी पहले मैं आकर आपकी यह पोस्ट देख चुका था किंतु अभी इतना व्यस्त हूँ कि मौका नहीं मिल पा रहा था…आपके प्रश्नों की बौछार से बचने का रास्ता भी तो खोजना था…!!!
हर व्यक्ति आपनी सोंच से ही अच्छा या बुरा होता है बाकी तो सब सामान्य ही रहता है…।कई मामलो में ये प्रश्नोत्तरी का खेल आपके अनजाने रहस्य जो खुद की नजरों से बचते रहते हैं एकदम सामने आकर खड़े हो जाते है और न चाह्ते हुए भी
इसे स्वीकार करना पढ़ता है…।
वही अच्छाई दिखी है मुझे आपमें पता नहीं
मैं मिला तो नहीं और कम ही पढ़ा है पर जो भी
देखा खरा लगा…।धन्यवाद!!