मंगलवार, 17 जुलाई 2007

रैगिंग - क्यों और कैसे


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
मसिजीवी जी ने अपने चिट्ठे हार्मलेस फ़न पर कुछ ऐसा ज़िक्र किया कि टिप्पणी के साथ-साथ तुरंत ही कुछ और भी लिखने की ऊर्जा मिली और शायद फुरसतिया द्वारा उल्लिखित चार यार वाले आलेख में मेरे स्वयं के बारे में न्यूटन के जड़त्व के सिद्धांत के अनुपालन करने के आरोप से मुक्ति का अवसर भी। (वास्तव में तो फुरसतिया जी ने सही ही कहा है, और विज्ञान के सिद्धांत पर भी परखें तो मसिजीवी के आलेख द्वारा प्रदत्त यह बाह्य ऊर्जा ही है|)

रैगिंग प्रक्रिया, या अब हो चला संस्कार, जिस के अंतर्गत सद्य:वरिष्ठ (Neo seniors) छात्रों द्वारा नवागंतुक विद्यार्थियों से परिचय प्राप्त करना - नहीँ बल्कि उसके रूप में उन्हें प्रताड़ित करना, मानसिक व शारीरिक रूप से कष्ट देना और उस पर तुर्रा यह कि यह तो एक आवश्यक परंपरा है, जिसके निर्वहन से आत्मीयता और स्नेह बढ़ता है, महाविद्यालयों व अन्य शिक्षा संस्थानों के छात्रों की जीर्ण मानसिकता और शिक्षण-संस्थानों के समाज की मानसिक निर्धनता का ही द्योतक है।

यह सही है, और आवश्यक भी है कि वरिष्ट छात्रों व नवागंतुक छात्रों के बीच स्नेह, आदर और मित्रता का संबंध हो और यह भी ठीक ही है कि वरिष्ठ छात्र यह अपेक्षा करें कि कनिष्ठ छात्र उन्हें सम्मानयुक्त मित्रता की दृष्टि से देखें। मैं यह भी मानता हूँ कि इस के लिये रैगिंग (शाब्दिक अर्थ में नहीं) तो अपरिहार्य है, पर इस रूप में नहीं जैसे कि आम तौर पर पाया जाता है। यदि रैगिंग को स्वस्थ, मनोरंजक, मज़ाकिया व चुटकी के रूप में अपनाया जाय तो संभवत: यह संस्कार एक बेहतर आनंददायी व अपने वास्तविक प्रयोजन में अधिक सफ़ल हो। इसमें सीमित मात्रा में मज़ाक, कुछ हद तक मौज, कुछ सूचनात्मकता, कुछ सामान्य व विशिष्ट ज्ञान आदि सही-सही अनुपात में समाहित किये जाएं तो यह प्रक्रिया रचनात्मक भी हो सकती है। यह विशेष ध्यान रहे कि मज़ाक अथवा मानसिक चुटकियों की मात्रा व सीमा का उल्लंघन कदापि न हो और उचित समय पर इसे सुखद माहौल में ही समाप्त किया जाय।

यह कुछ वैसा ही है कि जैसे मैंने कभी सुगन्धि विज्ञान में पढ़ा, व परखा भी था कि कई पदार्थ ऐसे होते हैं कि जो सामान्य मात्रा में अत्यंत दुर्गन्ध युक्त होते हैं, इन्हें एक पल सूँघते ही शायद मितली हो जाय परंतु उन्हीं की अति-सूक्ष्म मात्रा विशिष्ट सुगंध वाली होती है व ये अनेक प्रकार के सुगंधियों के उत्पादन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

ऐसे मज़ाक, मनोरंजन, उपहास, चुटकी आदि की सीमा क्या हो, यह शायद वरिष्ट विद्यार्थी स्वयं अपने अनुभव व संयत सोच से तय कर सकते हैं।

अपने बारे में मैं बता सकता हूँ, कि रैगिंग का शिकार तो मैं भी बना था, परंतु स्वयं वरिष्ठ (Senior) होने पर कभी किसी भी प्रकार से उत्पीड़न वाली रैगिंग करने का मन ही नहीं हुआ, अक्सर तो अन्य सहपाठियों द्वारा करायी जा रही रैगिंग में शामिल हो कर और उसे शीघ्रता और सौहार्द्रपूर्ण रूप से समाप्त करने में अधिक आनंद आता था, कभी-कभी सहपाठियों ने विरोध भी किया तो मान-मनौव्वल और अन्य युक्तियों से, जैसे कि उनसे यह कह कर कि अब इस नवागंतुक-विद्यार्थी को मेरे पास आने दो, ऐसा कह कर ले गया और शीघ्र ही उसे मुक्त कर दिया।

एकाध बार अपने इस प्रयास में विफल भी रहा हूँ। एक मनोरंजक वाकया यह भी हुआ। स्कूल के दिनों में हमारी कक्षा का मॉनीटर हुआ करता था - आनंद । एकाध बार उसकी शिकायत पर मुझे सजा भी मिली । वह मुझसे शारीरिक रूप से बलशाली हुआ करता था। बाद में उच्च संस्थान में उसका प्रवेश एक वर्ष उपरांत हुआ। प्रारंभिक दिनों में उसने एक दिन संस्थान में मेरा दोस्ताना नाम ले कर दूर से आवाज़ दी। यही अपराध हो गया उससे! फ़िर क्या था - मेरे साथ कुछ सहपाठी भी थे, मेरे लाख समझाने पर भी वे उसे अपने साथ छात्रावास ले गये, मुझे अलग जाना ही था। अगले दिन मुझे पता चला कि ठीक-ठाक उड़ैया हो गयी जनाब की और उसे खूब शिष्टाचार सिखाया गया।

मेरा वह मित्र वर्षों तक मुझे इस बात का उलाहना देता रहा और मज़ाक युक्त आरोप लगाता रहा कि मैंने ही उस दिन उसकी धुनाई करवा दी थी।

इसके विपरीत, अनेक बार रैगिंग के बाद होने वाले मित्रवत, और अनुजवत् स्नेह का पात्र भी रहा हूँ मैं। यह माना जाता है कि वरिष्ठ-कनिष्ठ सम्बन्धों की नींव ही रैगिंग से पड़ती है और बाद में ये सम्बन्ध अग्रज-अनुज के रूप में लम्बे अरसे तक कायम रहते हैं। मुंबई मे हंम दो सहपाठियों के प्रवास के दौरान अपने संस्थान के पूर्व-वरिष्ठ छात्रों द्वारा दिया गया अतुलनीय सहयोग और अपने घर से हज़ार मील दूर, हमारे सहपाठी के सर्प-दंश की शंका मात्र पर उन वरिष्ट छात्रों द्वारा त्वरित उपचार व पूर्ण सहयोग का भी गवाह रहा हूँ मैं।

बहुत दूर नहीं, पिछले सप्ताह ही, मैंने अपने ही संस्थान के एक वरिष्ठ छात्र, जो बाद में मेरे गुरु व अब एक महत्वपूर्ण सरकारी संस्थान के निदेशक हैं, उनसे बिना पूर्व सहमति के तब मुलाकात की है जब कि वे दिन भर की यात्रा कर के देर रात्रि अपने घर पहुंचे थे, मात्र 2-3 मिनट पहले ही, और इस पर भी उन्होंने मुझे स्नेहपूर्वक बिठाया और भविष्य में भी कभी भी बेहिचक किसी भी समय मिलने का आश्वासन भी दिया। अपने प्रारंभिक कार्यकाल में मैंने स्वंय भी अग्रज के रूप में, एक से अधिक बार अपने होस्टेल के कमरे में कई सप्ताह तक अपने कनिष्ठ छात्रों को स्वयं बुलाकर ठहराया है और आनंद का अनुभव किया है।

तो यह तो नहीँ कह सकता कि रैगिंग नाम से जानी जाने वाली परंपरा कतई ख़राब है - पर हाँ उसका निर्वहन का रूप और सीमा दोनों मर्यादित हों।

रैगिंग का विक़ृत होता स्वरूप और बदले की भावना वास्तव में गंभीर है, मात्र अनुशासनात्मक कार्यवाही और कानून के भय से इस परंपरा को बदला नहीं जा सकता। शायद सद्य: वरिष्ठ छात्रों को यह समझाकर कि यदि इस परंपरा को वे सुधारने में व उत्पीड़न को समाप्त करने में सहायक हों, व स्वस्थ और हल्के-फुलके रूप से (फुरसतिया ब्रांड) मौज / चुटकी ले कर परिचय व साक्षात्कार की रस्म पूरी करें तो सभी के लिये भला होगा और नवागंतुक (अनुज) उन्हें अधिक सम्मान मिश्रित स्नेह देंगे तो कदाचित उत्पीड़न के रिवाज़ कुछ कम हों। हमारे मनोचिकित्सक भी सत्रारंभ के पहले यदि अपने लेख व सामूहिक गोष्ठी व ऐसे प्रयासों से वरिष्ठ छात्रों व संस्थान प्रबंधन से मिलकर, उन्हें सलाह दे कर कदाचित इस प्रकिया के हानिरहित व धनात्मक पहलुओं को सामने लाने में अपना सहयोग दे सकते हैं।

9 टिप्‍पणियां:

अनूप शुक्ल ने कहा…

ये बढ़िया रहा। मसिजीवी के बहाने आपने यह लिख मारा। रैगिंग परिचय और संबंध बनाने के सेतु की तरह इस्तेमाल होते रहे। पहले भी होती रही अब भी जारी है। सीनियर भी बच्चे ही होते हैं। उनके पास भी तो देने को जो होगा वही तो वे अपने जूनियर्स को देंगे। आजकल हर शिक्षा सत्र की शुरुआत में
जूनियर छात्रों की आत्महत्या और हास्टल से भागने की खबरें परेशान करती हैं।

उन्मुक्त ने कहा…

कम से कम इसी बहाने लिखा तो सही

ratna ने कहा…

सही कह रहे है रैगिग ज़रूरी है पर सीमा में।

सुनीता शानू ने कहा…

वाह! क्या बात है...
सौ बात की एक बात...रैगिंग हो मगर एक दायरे में...:)

सुनीता(शानू)

Udan Tashtari ने कहा…

अहा!! अब मसिजीवी का सही मायने में साधुवाद और आभार. आपको जगा लाये. अब जरा जागते रहिये, जनाब.

बेनामी ने कहा…

आज कल कौन किसे छोडता है रे भाईया अभी अभी हमारे दोस्त का छोटा भाई पिट कर आया है जाओ उससे पुछो
रेगिन्ग कैसे लि लात घुसे सब खा लिया अब् सुकुन से बेड रेस्ट कर रहा है कह्ता है बद्ला जरुर लेगा मगर एक साल के बाद् जब वह भी सिनियर कहलायेगा

RC Mishra ने कहा…

रैगिंग एक मानसिकता है, जो बहुत से संस्थानो की संस्कृति का हिस्सा बन गयी है, इसके भी फायदे गिनाये जा सकते हैं।

आपके अनुसार ये एक "आवश्यक बुराई" जैसी प्रतीत होती है। इस आवश्यकता को समाप्त करना होगा।

आलोक ने कहा…

निश्चय ही आपके रैगिंग के प्रति अनुभव सुखद रहे हैं। मेरा अनुभव तो यही रहा है कि अपना काम निकलवाने के लिए रैगिंग का इस्तेमाल हुआ है।

नीरज दीवान ने कहा…

रैंगिंग का मक़सद अपमानकारी नहीं होना चाहिए। बाक़ी तो मौज मस्ती के कुछ क्षण हैं जो बड़े अपने छोटों की फिरकी लेने के लिए करते हैं।
सौभाग्यवश अपन ने स्कूल के ज़माने से ही कॉलेज के चक्कर लगाने शुरू कर दिए थे लिहाज़ा अपनी बारी आने पर सीनियरों ने अपने को जूनियर न समझा।
आपके अनुभव भी सुखद रहे। पढ़कर अच्छा लगा। लिखते रहिए।